क्यों बिहार की सियासी लड़ाई भाजपा-राजद बनाम कांग्रेस की होने जा रही है

कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने और फिर लालू यादव के राजनीति में सक्रिय होने से बिहार की राजनीति का पारा अचानक चढ़ गया है

तारापुर और कुशेश्वरस्थान विधानसभा उपचुनाव में महागठबंधन से कांग्रेस के अलग होने के बाद बिहार की सियासी राजनीति का पारा अचानक चढ़ गया. इस पर राजद सुप्रीमो लालू यादव ने छह साल बाद एक बार फिर सक्रिय राजनीति में उतरकर इस गर्माहट को और बढ़ाने का काम किया है. अगर हम बिहार उपचुनाव को देखें तो राजद और कांग्रेस के बीच सीधी जुबानी जंग दिखी है. कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने के बाद कांग्रेस एग्रेसिव मोड में दिख रही है. वहीं, नीतीश कुमार दोनों सीटों को बचाने की जी-तोड़ कोशिश करते हुए दिखें हैं. इन सब के बीच भाजपा की भूमिका केवल एक दर्शक मात्र की रही है.

इससे पहले विधानसभा चुनाव-2020 को देखते हुए कहा जा सकता है कि बिहार में भाजपा सीधी चाल नहीं चल रही है. वह जदयू के साथ गठबंधन में है, लेकिन वह नीतीश कुमार को कमजोर करती हुई दिखती है. इसकी पुष्टि बिहार चुनाव के नतीजे भी करते हैं, जहां राजद और भाजपा दो सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई. नीतीश कुमार को काफी अधिक सीटों का नुकसान उठाना पड़ा. मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने के लिए नीतीश कुमार, भाजपा के साथ रहकर भी किस तरह अपनी सियासी पारी को आगे बढ़ाते हैं और भाजपा को नियंत्रण में रखते हैं, ये देखने वाली बात होगी.

नीतीश कुमार अति पिछड़ों की राजनीति करते हैं. लेकिन यह ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं बल्कि, सामंजस्य की राजनीति है. दूसरी ओर, राजद की राजनीति यादव वर्चस्ववाद की है, जिसकी वजह से दलित और पिछड़ों का एक बड़ा हिस्सा राजद के साथ नहीं जुड़ पाया है. राजद की यादव पॉलिटिक्स भाजपा के लिए काम करती हुई दिखती है. इसकी वजह इन मतदाताओं का नीतीश कुमार के साथ होना है. वहीं, नीतीश कुमार का लगातार कमजोर होना, भाजपा के लिए एक अवसर का पैदा करता हुआ दिख रहा है. इस अवसर का फायदा भाजपा उठा पाती है या नहीं, इसके जवाब से ही आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति तय होती हुई दिखती है. इस राजनीतिक परिदृश्य के केंद्र में कांग्रेस दिखती है, जिसका कमजोर या मजबूत होना, राजद और भाजपा के सियासी समीकरणों को बना या बिगाड़ सकती है.

राजद के यादव और मुस्लिम (एमवाई) समीकरण के चलते यह उम्मीद नहीं दिखती है कि वह अपने साथ दलित और अति पिछड़ों को जोड़ पाएगी. इससे बिहार की राजनीति में एक बड़ा स्पेस खाली होता हुआ दिखता है. इस जगह को कौन भर सकता है? इसका जवाब एक मजबूत सामाजिक गठबंधन हो सकता है, जिसमें मुसलमानों का भी प्रतिनिधित्व हो. बिहार की राजनीति में इसके लिए प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराने का काम कांग्रेस ही करती हुई दिख सकती है. अगर ऐसा होता है कि बिहार में कांग्रेस मजबूत होगी, जो भाजपा की राजनीतिक ताकत को कम करने का काम करेगी. इस आधार पर माना जा सकता है कि बिहार में भाजपा की राजनीतिक भविष्य मजबूत राजद को कमजोर करने से अधिक कमजोर कांग्रेस को मजबूत होने से रोकने पर निर्भर करती है. इसकी कई वजह हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा बिहार में राजद के मुसलमान-यादव समीकरण के खिलाफ आसानी से हिन्दू वोट बैंक भी बना सकती है, जिसमें गैर-यादव और पिछड़े जाति के मतदाता भी शामिल होंगे. मौजूदा वक्त में सवर्ण साफ तौर पर भाजपा के साथ हैं, इससे किसी को असहमति नहीं हो सकती है. इस वजह से मुकाबले में राजद का सामने होना भाजपा की उम्मीद को जगाता है.

वहीं, कांग्रेस के मजबूत होने से भाजपा को अगड़ी जाति के मतदाताओं के भी अपने से दूर छिटकने की आशंका है और राजद को मुसलमानों के अपने से दूर होने की. राज्य में मुसलमानों का एक तबका राजद से नाउम्मीद होकर हालिया वर्षों में जदयू के साथ गया था, लेकिन अब नीतीश कुमार के नरेंद्र मोदी के साथ आने और राजनीतिक ताकत घटने के चलते 2020 के चुनाव में एक बार फिर राजद के साथ जाने पर मजबूर होना पड़ा. यानी कहा जा सकता है कि बिहार में कांग्रेस के कमजोर बने रहने से भाजपा और राजद के हित सधते हैं. लेकिन अगर कांग्रेस मजबूत होती है तो इससे दोनों की राजनीति को बड़ा नुकसान हो सकता है.

कन्हैया कुमार और तेजस्वी यादव की राजनीति

तेजस्वी यादव की छवि नीतीश-विरोधी यादव नेता की है. वे भाजपा की तुलना में नीतीश कुमार पर अधिक हमलावर दिखते हैं, जबकि राज्य में नीतीश कुमार की जदयू से अधिक बड़ी ताकत भाजपा बन चुकी है. वहीं, कन्हैया कुमार की छवि मोदी-विरोधी की है, जिनके साथ किसी खास जाति की राजनीति का तमगा अब तक नहीं लगा है. हालांकि, दिल्ली और पटना के साथ-साथ सोशल मीडिया के राजनीतिक पंडित कन्हैया कुमार की राजनीति को सर्वणों के साथ जोड़ने की कोशिश करते हुए दिखते हैं.

वहीं, हालिया वर्षों में भाजपा की राजनीति यह रही है कि राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों को अपने साथ लाने की कोशिश रही है. इससे कांग्रेस को साफ नुकसान होता हुआ दिखता है. हम इसके लिए ओडिशा और आंध्र प्रदेश के उदाहरण को सामने रख सकते हैं. वहीं, उत्तर प्रदेश में मायावती भी भाजपा से अधिक कांग्रेस पर हमलावर दिखती हैं. राजनीति की अनिश्चितताओं को देखते हुए इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार में भाजपा अपनी इस चाल को खेलने से बचेगी और राजद के तेजस्वी यादव के साथ कोई डील नहीं हो सकती है.

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