पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनकी राजनीतिक शुचिता के साथ-साथ संयमित संसदीय व्यवहार के लिए जाना जाता रहा. लेकिन, 1995 में पहली बार उन्हें संसदीय कार्यवाही के दौरान गुस्से और ऊंची आवाज में बोलते हुए देखा गया. इसकी वजह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखपत्र आर्गनाइजर में छपा एक आलेख था. यह लेख अटलजी के साथ बातचीत पर आधारित था. इस लेख में छपी बातों को लेकर ही सीपीएम नेता सोमनाथ चटर्जी उनसे जवाब चाहते थे.
अटल बिहारी वाजपेयी का संसदीय जीवन जनसंघ के सांसद के रूप में 1957 से शुरू हुआ था. वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी एक आलेख में इस घटना के बारे में बताते हैं, ‘जब सोलह मई को वे मामला उठाने के लिए खड़े हुए तो अटल जी ऐसे बिफरे कि तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष (शिवराज पाटिल) ने सोमनाथ चटर्जी को बात वहीं छोड़ देने को कहा.’ इसके बाद सीपीएम नेता ने भी इस मामले को वापस ले लिया. हालांकि, दूसरे दिन इस घटना को लेकर उन्होंने खेद जताया. इसके बाद अटलजी और सोमनाथ चटर्जी ने एक-दूसरे के प्रति सम्मान जाहिर कर मामला रफा-दफा कर दिया. हालांकि, अटल बिहारी वाजपेयी ने साफ किया कि वे ऐसी किसी बात की सदन में कोई सफाई नहीं देंगे, जो उन्होंने बाहर कहीं कही है.
दरअसल, सात मई, 1995 को ऑर्गेनाइजर में अटल बिहारी वाजपेयी का जो आलेख छपा था, उसमें उन्होंने कहा था, ‘जब मैं 10वीं में पढ़ता था तो ‘हिंदू तन मन हिंदू जीवन’ (कविता) लिखी थी. उस वक्त मैंने कहा था- कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ीं. मैं इस बात पर अभी तक कायम हूं.’ इसके आगे उनक कहना था, ‘हमलोगों ने अयोध्या में ढांचे को गिरा दिया. यह इतिहास में पहली घटना है, जब हिंदुओं ने उनके (मुसलमानों) धार्मिक स्थल को ढहा दिया. हमलोग इस समस्या का समाधान बातचीत और विधिसम्मत तरीके से चाहते थे. लेकिन, बुराई के लिए कोई पुरस्कार नहीं होता.’
अटल बिहारी वाजपेयी की इस बात को अयोध्या में कारसेवकों द्वारा विवादित ढांचे को गिराने में संघ और भाजपा का हाथ होने की स्वीकारोक्ति माना गया. इस लिहाज से सोमनाथ चटर्जी चाहते थे कि अटल जी इस बात को संसद में भी रखें. लेकिन, अटल बिहारी वाजपेयी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे. उनका कहना था कि अंग्रेजी में छपे इस लेख में ‘वी’ (हमलोग) शब्द का जो इस्तेमाल किया गया है, उसका मतलब संघ और भाजपा से नहीं बल्कि, हिंदुओं से है. साथ ही, वाजपेयी का कहना था कि कई मुद्दों पर यह लेख उनके विचारों को ठीक से नहीं रख पाया. उनके मुताबिक यह बातचीत हिंदी में हुई थी और संभव है कि अंग्रेजी में अनुवाद करते वक्त गलतियां हो गई हों.
प्रभाष जोशी की मानें तो वाजपेयी ने इस बात पर भी जोर दिया कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद संसद में जो उन्होंने कहा था, उस पर वे अभी भी कायम हैं. 17 दिसंबर, 1992 को वाजपेयी ने लोक सभा में कहा था, ‘हमारी पार्टी ढांचे को तोड़ने के पक्ष में नहीं थी. जिन्होंने भी ढांचे को तोड़ा है, उन्हें आगे आकर अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और उसके लिए जो भी सजा मिले उसे स्वीकार करना चाहिए.’
वहीं, प्रभाष जोशी ने ‘वी’ का मतलब हिंदू बताए जाने पर भी आपत्ति जाहिर की थी. उनका कहना था कि हत्या करने वाला कोई हिंदू हो तो सारा हिंदू समाज हत्यारा नहीं हो जाता. एक लेख में उनके शब्द थे, ‘ज्यादातर हिंदुओं ने तो बाबरी ध्वंस की भर्त्सना की है. हिंदू समाज ध्वंस करने वालों को अपनाकर उन पर गौरव नहीं करता, संघ परिवार भले ही करे. लेकिन संघ परिवार हिंदू समाज नहीं है.’
ऑर्गेनाइजर के इसी लेख में अटल बिहारी वाजपेयी का यह भी कहना था, ‘देश के मुसलमानों के साथ तीन तरह से व्यवहार किया जा सकता है. पहला है तिरस्कार- इसका मतलब है कि यदि वे खुद को नहीं बदलते हैं तो उन्हें अकेला छोड़ दो. दूसरा है, पुरस्कार यानी तुष्टिकरण जो कांग्रेस करती है.’ इनके अलावा वे तीसरे रास्ते के रूप में परिष्कार की बात करते हैं. इसका मतलब सही संस्कारों के जरिए मुसलमानों को बदलने से है. हालांकि, वे साफ करते हैं कि इसका मतलब धर्म बदलने से नहीं है. उनके मुताबिक मुसलमानों के लिए मक्का पवित्र रहेगा लेकिन, इससे भी पाक भारत होना चाहिए.
साथ ही, इससे पहले बाबरी मस्जिद विध्वंस से ठीक एक दिन पहले यानी पांच दिसंबर, 1992 को अयोध्या से 135 किमी दूर लखनऊ में उन्होंने विवादित स्थल पर नुकीले पत्थरों को समतल किए जाने की बात कही थी. उनकी इस बात को अभी भी बाबरी मस्जिद को ढहाने को लेकर कारसेवकों को उकसाने और इस पर उनकी मौन सहमति के रूप में देखा जाता है. वहीं, जब बाबरी मस्जिद गिरा दी गई तो उनका कहना था, ‘गांधीजी भी देश के विभाजन के खिलाफ थे लेकिन, जब हो गया तो उन्होंने स्वीकार किया या नहीं?’