अटल बिहारी वाजपेयी को दीनदयाल उपाध्याय से अधिक नेहरू ने परखा था

दीनदयाल उपाध्याय श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन से संसद में खाली हुई जगह की भरपाई अटल बिहारी वाजपेयी के जरिए करना चाहते थे

आम तौर पर हर कोई किसी न किसी से प्रेरित होता है. इस मामले में अटल बिहारी वाजपेयी भी अलग नहीं थे. वे अपने से आठ साल बड़े दीनदयाल उपाध्याय से खासे प्रभावित थे. जनसंघ के सहसंस्थापक दीनदयाल उपाध्याय भी राष्ट्रधर्म और पाञ्चजन्य पत्रिका के संपादक के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी के काम से काफी प्रभावित थे. इस बात को ध्यान में रखते हुए ही उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की मुलाकात श्यामा प्रसाद मुखर्जी से कराई थी. इसके कुछ समय बाद ही अटल बिहारी वाजपेयी उनके सहायक के रूप में काम करने लगे थे.

हालांकि, अटल बिहारी वाजपेयी को मुखर्जी के साथ काम करने का मौका करीब दो साल तक ही मिल पाया. 1953 में जम्मू-कश्मीर की एक जेल में जनसंघ के संस्थापक ने आखिरी सांसें लीं. मुश्किल की घड़ी में इस पार्टी को संभालने की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के कंधों पर आ पड़ी थी. उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी से खासी उम्मीदें थीं. यही वजह है कि उन्होंने उसी साल लखनऊ लोक सभा सीट से वाजपेयी को जनसंघ का उम्मीदवार बनाया. उस वक्त वे 28 साल के ही थे. यह सीट कांग्रेस सांसद और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बहन विजयालक्ष्मी पंडित के इस्तीफा से खाली हुई थी जिनका चयन संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में भारतीय राजदूत के पद पर हो गया था.

वरिष्ठ पत्रकार किंशुक नाग अपनी किताब ‘अटल बिहारी वाजपेयी : अ मेन फॉर ऑल सीजन्स’ में लिखते हैं कि इस चुनाव के लिए अटल बिहारी वाजपेयी ने काफी मेहनत की थी. उन्होंने 150 से अधिक जनसभाओं को संबोधित किया था. लेकिन, कांग्रेस के प्रभुत्व और जनसंघ का आधार कमजोर होने की वजह से उन्हें करीब 34 हजार मतों के साथ तीसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा था. एसआर नेहरू ने इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा कायम रखा था.

इस हार के बाद भी अटलजी पर दीनदयाल उपाध्याय का भरोसा कम नहीं हुआ. वे चाहते थे कि अटल बिहारी वाजपेयी संसद जरूर पहुंचें. यह मौका एक बार फिर 1957 के आम चुनाव में आया. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बाद संसद में पार्टी की जो जगह खाली हुई थी, उसकी भरपाई के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को तीन सीटों-लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से उतारा गया.

अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनगाथा ‘हार नहीं मानूंगा- एक अटल जीवन गाथा’ लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी की मानें तो 1953 के उपचुनाव में हार के बाद भी उन्हें अच्छे वोट मिले थे, इसलिए लखनऊ से उनकी उम्मीदवारी बरकरार रखी गई थी. वहीं, मथुरा से कोई पार्टी उम्मीदवार खर्च अधिक और जमानत जब्त होने की आशंका से खड़ा नहीं हो रहा था. इसके अलावा बलरामपुर में पार्टी की स्थिति ठीक-ठाक थी. हालांकि, इस उम्मीदवारी से पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी बलरामपुर का मुंह भी नहीं देखा था. लेकिन, चुनाव का नतीजा इसी सीट से उनके पक्ष में आया. उन्होंने कांग्रेस के हैदर हुसैन को करीब 10,000 मतों से मात दी. जैसी संभावना थी, मथुरा में उनकी जमानत भी नहीं बच पाई. दूसरी ओर, लखनऊ में भी 33 फीसदी मतों के साथ उन्हें एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा. 1957 के चुनाव में जनसंघ ने बलरामपुर सहित चार सीटों पर जीत का स्वाद चखा. अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी की संसदीय बोर्ड का प्रमुख चुना गया.

यहीं से अटल बिहार वाजपेयी के 2009 तक चलने वाले संसदीय जीवन की शुरुआत होती है. इसी दौरान वे न केवल दीनदयाल उपाध्याय की उम्मीदों पर खरे उतरते हैं बल्कि, इससे भी बढ़कर खुद जवाहर लाल नेहरू उनमें भविष्य का प्रधानमंत्री भी देखते हैं.

इसकी कई वजहें रहीं. अटल बिहारी वाजपेयी शुरुआत से ही अपनी भाषणशैली के लिए मशहूर रहे. 1957 में ही लोक सभा अध्यक्ष अनंतशायनम अयंगर ने उन्हें सदन का सबसे अच्छा हिंदी वक्ता बताया था. इसके अलावा नेहरू भी उनसे काफी प्रभावित थे. बताया जाता है कि वे वाजपेयी के सवालों का जवाब भी हिंदी में ही देते थे. अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में अपनी वाकपटुता के लिए भी मशहूर थे. इस बारे में विजय त्रिवेदी अपनी किताब में एक घटना का उल्लेख करते हैं. वे लिखते हैं कि एक बार नेहरू ने जनसंघ की आलोचना की तो वाजपेयी ने कहा, ‘मैं जानता हूं पंडित जी रोजाना शीर्षासन करते हैं. वे शीर्षासन करें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन, मेरी पार्टी की तस्वीर उलटी न देखें.’

वहीं, जवाहर लाल नेहरू की तरह अटल बिहारी वाजपेयी का भी विदेश नीति पसंदीदा विषय रहा था. इसे लेकर दोनों के बीच संसद में कभी-कभी गरमा-गरम बहस हो जाती थी. मई, 1964 में अपनी मौत से कुछ दिन पहले ही नेहरू की संसद में शेख अब्दुल्ला की रिहाई और उन्हें बातचीत के लिए पाकिस्तान भेजे जाने पर वाजपेयी के साथ तीखी बहस हो गई थी.

हालांकि जैसा कि वाजपेयी खुद कहते थे, इन मतभेदों के चलते देश के पहले प्रधानमंत्री के साथ उनका कोई मनभेद नहीं हुआ. बल्कि कई मौकों पर नेहरू ने उनका परिचय अपने सबसे बड़े आलोचक के रूप में कराया. किंशुक नाग इस बारे में एक घटना का जिक्र करते हैं. एक बार जवाहर लाल नेहरू ने अपने ब्रिटिश समकक्ष से कहा था, ‘वे (अटल) विपक्ष के युवा नेता हैं, जो हमेशा मेरी आलोचना करते रहते हैं. लेकिन, मैं उनका उज्ज्वल भविष्य देखता हूं.’ एक अन्य विदेशी प्रतिनिधि के सामने उन्होंने वाजपेयी को भारत का उभरता हुआ संसदीय नेता बताया था. यही नहीं, उनका मानना था कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के मुकाबले अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री पद के कहीं ज्यादा संभावित उम्मीदवार हैं. उनकी बात सच निकली.

संसद में विषयों को लेकर मतभेद के बाद भी जवाहर लाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच संबंध किस तरह के थे, इसका इशारा खुद जनसंघ के नेताओं की बातों से मिलता है. हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार पंकज वोहरा ने अपने एक ब्लॉग में लिखा है कि बलराज मधोक ने उनसे एक बार कहा था, ‘जब मैं चीन के प्रति रुख को लेकर नेहरू की आलोचना करता था तो वाजपेयी मुझसे कहते थे कि अब मैं दोबारा कभी लोक सभा के लिए नहीं चुना जाऊंगा. कृपलानी (आचार्य जेबी कृपलानी) मेरे बगल में बैठते थे. उन्होंने मुझसे कहा कि उसे (अटल) को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है. वह विपक्ष में नेहरू का प्लांटेड आदमी है.’

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