बिहार का वोटर क्यों यह सोचने पर मजबूर है कि गांवों में भी सत्ता का केंद्रीकरण हो चुका है

ग्राम पंचायत में शायद ही कोई ऐसा मकान हो, जिसकी दीवारों पर उम्मीदवारों के हाथ जोड़कर वोट देने की अपील चस्पा न हो, इसकी शुरुआत एक साल पहले ही हो गई थी

बिहार के दूसरे हिस्सों की तरह ही हमारे भोजपुर (आरा) के गांव भी तेजी बदल रहे हैं. यहां प्रत्येक ब्लॉक में तीन-चार ऐसे बड़े गांव हैं, जो गांव से दूर और शहर के करीब पहुंच चुके हैं. यहां आपको बिजली, सड़क, स्कूल, बैंकिंग, ऑनलाइन सेवाएं/ मोटरसाइकिल के साथ-साथ कार और आलीशान मकान भी दिख जाएंगे. मेरा गांव दावां भी इनसे अलग नहीं है.

बीते शुक्रवार को यहां मतदान संपन्न होने से चुनावी शोर थम चुका है. लेकिन मतदान खत्म होने से पहले इसने गांव में कई सारी चीजें शुरू की थीं. इसने गांव में कई तरह के रोजगार के अवसर भी पैदा किए. पंचायत चुनाव- 2021 में फ्लैक्स-बैनर का कारोबार खूब जोरों पर रहा है. गांव में शायद ही कोई ऐसा मकान हो, जिसकी दीवारों पर उम्मीदवारों के खुद को सबसे योग्य बताते हुए हाथ जोड़कर वोट देने की अपील चस्पा न हो. हालांकि, इसकी शुरुआत एक साल पहले ही हो गई थी. बीते एक साल से भावी उम्मीदवार नए साल की शुभकामनाएं, ईद, छठ सहित अन्य त्योहारों के अवसर पर बधाई देते हुए पोस्टरों पर प्रकट होते रहे हैं. वहीं, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों जैसे, फेसबुक और यूट्यूब पर भी काफी पैसा बहाया गया है. इन पोस्टर और बैनरों से उम्मीदवारों को वोट मिलें हो या न मिलें हो, लेकन कुछ बेरोजगारों को रोजगार जरूर मिले हैं.

दूसरी ओर, चुनाव आते ही समर्थकों के लिए भोज-भंडारा, पंचायत की 8-10 किलोमीटर की गोलाई में घूमने के लिए महंगा पेट्रोल, नामांकन के लिए 100 से अधिक चारपहिया-तिपहिया गाड़ी, सैकड़ों लोगों का भोजन, जयकारे लगाने वाले लोगों को आर्थिक मदद-लालच, वोटरों का उम्मीदवार से उधार पैसा लेकर पचा जाना, शराब-मुर्गा पर खर्च (शराबबंदी के बावजूद) के अलावा कुछ उम्मीदवारों के वोटरों की जेब गर्म करना ग्राम स्वराज की मूल संकल्पना पर पानी फेरना है.

अगर हम इन सब खर्चों को लेकर एक मोटा-मोटी अनुमान लगाएं तो मुखिया पद के लिए एक-एक उम्मीदवार 10 लाख रुपये से लेकर 30 लाख रूपये तक खर्च कर रहा है. इससे पहले के चुनावों इतनी बड़ी संख्या में रकम खर्च नहीं की जाती थी.

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वहीं, मुखिया पद के बाद सबसे अधिक वार्ड सदस्य बनने के लिए उम्मीदवार पैसा बहा रहे हैं. इसकी वजह राज्य सरकार दोनों मुखिया और वार्ड सदस्य को अधिक वित्तीय शक्ति देना रहा है. नल जल योजना और नाली-गली योजना पर एक-एक वार्ड में 15 से 20 लाख रूपये औसतन खर्च किए गए हैं. इनके अलावा बाकी पदों के लिए वित्तीय शक्ति सीमित होने या न होने के चलते इनको लेकर उम्मीदवार अधिक खर्च नहीं कर रहे हैं. सबसे सुस्ती ग्राम कचहरी सदस्य (पंच) के लिए दिखी है. लगभग आधे पदों पर इनका चुनाव निर्विरोध हुआ है. दूसरी ओर, जिला परिषद सदस्य पद के लिए भी कोई सरगर्मी नहीं दिखी है.

इन सब बातों से वोटिंग की बात करें तो पंचायत चुनाव में लोग उम्मीदवार के साथ व्यक्तिगत संबंध, निजी फायदे और जाति को वरीयता दे रहे हैं, न कि बुनियादी विकास और सामूहिक विकास के मुद्दे पर. इसके अलावा बाहुबल के साथ-साथ धनबल की धमक प्रमुखता से महसूस की जा सकती है.

देश में ग्राम स्वराज की पैरवी करने वाले महात्मा गांधी ने गांवों तक सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात कही थी. लेकिन पंचायत के महंगे चुनावी माहौल को देखकर गाँधीजी का यह सपना के आजादी के सात दशक बाद भी पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा है. ऐसा लगता है कि दिल्ली और पटना की तरह ही पंचायत में भी एक खास तबके के पास सत्ता का केंद्रीकरण हो चुका है.

दुर्गेश कुमार आरा में रहते हैं और राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं

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