कैसे हैदराबाद के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की वजह निजाम से अधिक ओवैसी की पार्टी एमआईएम थी

सरदार वल्लभभाई पटेल मानते थे कि आजाद हैदराबाद भारत की कोख में कैंसर की तरह होगा

मौजूदा वक्त में व्हाट्सएप के फर्जी संदेशों को ऐतिहासिक तथ्य मानने के चलन के बावजूद इस बात से कम लोग ही अनजान होंगे कि आजादी के बाद भारत को एक करने का काम सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था. गृह मंत्री रहते हुए 550 से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों को एक करने के मुश्किल काम को ‘लौहपुरुष’ ने ही अंजाम दिया था. लेकिन इन रियासतों में तीन रियासतें ऐसी थीं, जिन्होंने भारत के साथ टेढ़ी चाल चलने की कोशिश की. इनमें जूनागढ़ और जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ हैदराबाद रियासत थी.

हैदराबाद की कुल 1.60 करोड़ की आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी 85 फीसदी थी जबकि, सत्ता और प्रशासन में हिस्सेदारी न के बराबर. भारत की आजादी का आधार बने माउण्टबेटन योजना (तीन जून, 1947) के जरिए रियासतों को इस बात की आजादी दी गई थी कि वे अपनी सुविधानुसार भारत और पाकिस्तान में से किसी भी देश में मिल सकते हैं. या फिर ब्रिटेन के अधीन आजाद रह सकते हैं. इस आधार पर निजाम ने भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया. उनके इस इनकार की वजह का जिक्र सरदार वल्लभ भाई पटेल के सहयोगी और रियासत विभाग के सचिव वीपी मेनन अपनी किताब ‘द स्टोरी ऑफ द इंट्रीगेशन ऑफ द इंडियन स्टेट’ में करते हैं.

वीपी मेनन कहते हैं कि एक बार गवर्नर जनरल माउण्टबेटन ने उन्हें बताया था कि निजाम मीर उस्मान को इस बात का डर है कि भारत के साथ मिलने पर हैदराबाद की सत्ता बहुसंख्यक हिंदुओं के हाथों में चली जाएगी. इस दौरान उन्हें ब्रिटेन की रूढ़िवादी कंजरवेटिव पार्टी और पाकिस्तान की ओर से मोहम्मद अली जिन्ना का समर्थन भी मिल रहा था. दूसरी ओर, माउण्टबेटन इस समस्या का समाधान अपने कार्यकाल के पूरा होने के पहले आपसी बातचीत के जरिए करना चाहते थे. लेकिन इसस पहले निजाम ने फरमान जारी कर संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि नहीं भेजने का एलान कर चुके थे.

भारत और हैदराबाद के बीच समझौते की कोशिशों को लेकर दिल्ली में माउण्टबेटन की मध्यस्थता में बैठकों का सिलसिला चलता रहा. लेकिन बैठकें अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाईं. और हैदराबाद के प्रतिनिधि नवाब छतारी और निजाम के संवैधानिक सलाहकार सर वॉल्टर मॉन्कटन वापस हैदराबाद चले गए. इन बैठकों में भारत की ओर से वीपी मेनन मौजूद थे.

इन बैठकों के विफल होने के बाद माउण्टबेटन के कहने पर भारत सरकार ने समझौते के लिए हैदराबाद को दो महीने का समय देने की बात कही. इस पर सरकार ने सहमति जताई और उन्हें मध्यस्थ की भूमिका निभाते रहने के लिए कहा. इसके बाद एक महीने के अंदर निजाम ने गवर्नर जनरल को पत्र लिखकर भारत के साथ समझौते की इच्छा जताई.

इस पत्र में उन्होंने कुछ शर्तों का जिक्र भी उन्होंने किया था. जैसे, भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध होने की स्थिति में हैदराबाद तटस्थ की भूमिका में रहेगा. इसके अलावा उन्होंने दुनिया में कहीं भी अपना प्रतिनिधि नियुक्त करने का अधिकार अपने पास रखने की शर्त को शामिल किया. माउण्टबेटेन ने दोनों पक्षों के बीच 25 अगस्त, 1947 को एक बैठक तय की थी.

हालांकि इससे एक हफ्ते पहले ही 17 अगस्त को ही माउण्टबेटेन के हाथों में सर वॉल्टर मॉन्कटन का पत्र था. इसमें उन्होंने इसकी जानकारी दी थी कि वे निजाम के संवैधानिक सलाहकार के पद से इस्तीफा दे चुके हैं. मॉन्कटन के इस्तीफा देने की वजह हैदराबाद में रजाकारों का उन पर किया गया हमला बना था. इसके कुछ दिनों बाद ही नवाब छतारी ने भी रजाकारों से तंग आकर अपने इस्तीफा निजाम को दे दिया. इसके बाद निजाम ने हमले की निंदा कर दोनों को इस्तीफा नहीं देने के लिए तैयार कर लिया.

वहीं, दूसरी ओर भारत और रियासत के बीच बैठकों का सिलसिला चलता रहा लेकिन, दोनों पक्ष एकमत नहीं हो पाए. इस बीच रियासत में रजाकारों की ताकत बढ़ती ही जा रही थी और निजाम उसके गिरफ्त में आते जा रहे थे.

बताया जाता है कि हैदराबाद में हथियारबंद रजाकारों के समूह के पीछे सैय्यद कासिम रजवी नाम का शख्स था, जो मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमिन पार्टी के अध्यक्ष थे. एमआईएम का गठन 1927 में निजाम समर्थक दल के रूप में किया गया था. यह भारत के विलय के सख्त खिलाफ थी. अब इस पार्टी को ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमिन (एआईएमआईएम) के नाम के साथ जाना जाता है और हैदराबाद के मौजूदा सांसद असदुद्दीन ओवैसी इसके अध्यक्ष हैं.

पेशे से वकील रजवी की शिक्षा उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में हुई थी और उन्होंने महाराष्ट्र के लातूर में वकालत की प्रैक्टिस की थी. रियासत में इनकी ताकत समय के साथ बढ़ती जा रही थी. रिजवी सत्ता में हिंदुओं की भागीदारी के सख्त खिलाफ थे. इनका मानना था कि हिंदुओं को मुसलमानों का शासन स्वीकार करना ही होगा. इसके अलावा वे इस समस्या को हिंदू और मुसलमान के बीच समस्या के रूप में देखते थे.

हैदराबाद के निजाम पर रजवी के प्रभाव का सबूत इस बात से मिलता है कि अक्टूबर, 1947 में जब दोनों पक्ष स्टैंडस्टिल समझौते पर करीब- करीब सहमत हो गए थे, तभी रजवी के दबाव में आकर निजाम ने अपने प्रतिनिधियों को हैदराबाद वापस बुला लिया. इस समझौते के तहत भारत हैदराबाद को ब्रिटिश सत्ता के समय मिली स्थिति को जारी रखने पर सहमत हो गया था. इतिहास में इस घटना को ‘अक्टूबर कूप’ के नाम से जाना जाता है. इस घटना ने रियासत में रजवी की सर्वोच्चता स्थापित कर दी थी.

मोहम्मद हैदर जो उस समय ओसमानाबाद के कलेक्टर पद पर थे, उन्होंने इसका जिक्र विस्तार से अपनी किताब ‘अक्टूबर कूप : ए मेमोयर ऑफ द स्ट्रगल फॉर हैदराबाद’ में किया है.

हैदर ने एक मुलाकात के दौरान रजवी जब से सवाल किया कि हिंदुबहुल हैदराबाद रियासत पर अल्पसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले निजाम कैसे शासन कर सकते हैं? इस पर रजवी का जवाब था, ‘निजामों ने हैदराबाद पर लगातार दो सौ वर्षों से शासन किया है. हमलोगों ने इतने वर्षों तक इसलिए शासन किया क्योंकि हम इसके लायक थे.’ हैदर ने अपनी किताब में जिक्र किया है कि जब उन्होंने रजवी से हैदराबाद के विलय पर सवाल पूछा तो उनका जवाब काफी सख्त और तीखा था. उन्होंने कहा, ‘भारत एक भौगोलिक देश है, जबकि हैदराबाद एक राजनीतिक यथार्थ है. क्या हम भारत के विचार के लिए हैदराबाद की वास्तविकता को कुरबान कर दे !’

हैदर की मानें तो रजवी को उस दिन का इंतजार था, जब मुसलमान एक बार फिर पूरे हिंदुस्तान पर शासन करेंगे और दिल्ली पर निजाम की हुकूमत होगी. रजवी का असर इतना बढ़ चुका था कि उसके हथियारबंद समूह रजाकारों ने बहुसंख्यक समुदाय में डर कायम करने के लिए सड़कों पर बंदूक और तलवार के साथ मार्च निकालने लगे. उन्होंने ‘आजाद हैदराबादियों के लिए आजाद हैदराबाद’ और ‘भारतीय संघ के साथ कोई समझौता नहीं’ जैसे नारे लिखे पर्चे बांटने शुरु कर दिए थे. मार्च, 1948 तक एमआईएम पार्टी के सदस्यों की संख्या 10 लाख तक हो गई थी. इनमें से करीब एक लाख हथियार प्रशिक्षित रजाकार थे, जो शहर में हिंसा, लूटपाट की घटनाओं को अंजाम देते थे. ये सभी अल्लाह के नाम पर अपनी जान देकर भी दक्कन यानी हैदराबाद में मुस्लिम राज कायम रखने की बात करते थे.

रजवी कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहते थे, ‘हम यहां ब्राह्मणों और बनियों का राज नहीं चाहते हैं. इस तरह से देखा जाए तो रजवी जिनके प्रभाव में निजाम आ चुके थे, भारत के साथ किसी भी समझौते के सख्त खिलाफ थे. इनके नेतृत्व में रजाकारों का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था. इस बीच, पाकिस्तान और पूर्वी यूरोप के देशों से हथियारों के खेप हैदराबाद पहुंचने की खबरें भी आने लगी थीं. रजाकारों के अत्याचार से परेशान हिंदू समुदाय पड़ोसी राज्यों में पलायन करने लगे. मद्रास सरकार ने गृह मंत्री और रियासत विभाग के प्रमुख सरदार पटेल को पत्र लिखकर हैदराबाद से आने वाले शरणार्थियों की बड़ी संख्या को संभाल पाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर चुके थे.

हैदराबाद रियासत भारत के लिए गंभीर चुनौती बन चुका था. रियासत के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाने की बात पर निजाम के प्रतिनिधि पाकिस्तान के साथ जाने और मामले को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में ले जाने की धमकी देते थे. जून, 1948 में मेनन और रियासत के दीवान लाइक अली के बीच बैठक काफी कड़वाहट भरी रही. दूसरी ओर, परिस्थितियां भी हैदराबाद के खिलाफ जा चुकीं थीं. आपसी बातचीत के जरिए मुद्दे को सुलझाने की कोशिश करने वाले आखिरी ब्रिटिश गवर्नर जनरल माउण्टबेटन का कार्यकाल पूरा हो चुका था. हैदराबाद रियासत के खिलाफ सख्त कार्रवाई के इंतजार में बैठे पटेल के पास अब पूरे अधिकार आ चुके थे.

संवैधानिक मामलों के जानकार एजी नूरानी ने अपनी किताब ‘डिस्ट्रक्शन ऑफ हैदराबाद’ में जिक्र किया है कि पटेल व्यक्तिगत रूप से निजाम को पसंद नहीं करते थे और सैन्य कार्रवाई को पहले विकल्प के रूप में देखते थे. वहीं, नेहरू का मानना था कि जब कोई रास्ता न बचे, उस वक्त ही हैदराबाद के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की ओर कदम बढ़ाना चाहिए. नूरानी का कहना है कि पटेल में बातचीत के जरिए मामले को सुलझाने का धैर्य नहीं था. वे मानते थे कि आजाद हैदराबाद भारत की कोख में कैंसर के समान होगा.

इसे देखते हुए ही पटेल ने 13 सिंतबर, 1948 को हैदराबाद के खिलाफ सैन्य कार्रवाई जिसे ‘पुलिस एक्शन’ कहा गया, का एलान कर दिया. इस कार्रवाई को ऑपरेशन पोलो या कैटरपिलर के नाम से भी जाना जाता है. हैदराबाद रियासत को चारों तरफ से घेर लिया गया. इस कार्रवाई के दौरान 42 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे. दूसरी ओर, दो सौ के करीब रजाकार मारे गए थे.

बताया जाता है कि कार्रवाई शुरु किए जाने के चार दिन बाद ही निजाम ने रेडियो के जरिए रजाकारों पर प्रतिंबध लगाने का एलान किया. साथ ही, भारत के साथ शांतिपूर्ण तरीके से रहने की बात कही. नवंबर, 1948 में भारत में हैदराबाद रियासत के विलय की प्रक्रिया पूरी हुई. वहीं, भारत सरकार ने निजाम के प्रति उदारता दिखाते हुए उन्हें राज्य के औपचारिक शासक के रूप में बहाल रखा गया. इसके अलावा विशाल संपत्ति की ज्यादार हिस्सा अपने पास रखने की अनुमति भी दे दी.

हैदराबाद पर विजय के बीच इस पुलिस एक्शन का एक काला पक्ष यह है कि दबी जुबान में भारतीय सेना पर नरसंहार के आरोप लगे. नेहरु ने इसकी जमीनी हकीकत को जानने के लिए कांग्रेसी नेता पंडित सुंदरलाल की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति को हैदराबाद भेजा था. करीब महीनेभर हैदराबाद का दौरा करने के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी. लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया. फिलहाल यह रिपोर्ट नई दिल्ली के नेहरु मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में रखी हुई है.

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