जदयू ने राजद, वाम दलों और कांग्रेस के समर्थन से बिहार में एक बार फिर महागठबंधन की सरकार बना ली है. इससे पहले 2015 में भी महागठबंधन ने पटना पर कब्जा किया था. हालांकि, इन दोनों सरकारों में बुनियादी फर्क है. सात साल पहले जनादेश के आधार पर राज्य में महागठबंधन की सरकार बनी थी. वहीं, एक बार फिर नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू ने अपनी सहयोगी पार्टी भाजपा से अलग होकर महागठबंधन की सरकार बनाई है. पिछली बार की तरह इस बार भी राजद नेता तेजस्वी यादव को उप मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी गई है.
राज्य की यू-टर्न लेती इस राजनीतिक घटनाक्रम से राज्य में भाजपा अकेली पड़ती हुई दिख रही है. साथ ही, राज्य की राजनीति में देश की सबसे बड़ी पार्टी की संभावनाओं पर भी प्रश्नचिह्न लगता हुआ दिखता है. इसकी वजह राज्य की राजनीति का जातीय समीकरण की धुरी पर घूमना है. हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों के एक तबके का मानना है कि भले ही भाजपा सत्ता से बाहर हो गई है और उसे एक बड़ा झटका लगा है, लेकिन इससे राज्य में भाजपा के आत्मनिर्भर होने की राह भी खुल सकती है. हालांकि, इनमें कई तरह के समीकरण हैं, जिससे तय होगा कि आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति किस करवट बैठती है.
पिछड़ा वर्ग : बिहार की सियासी धुरी
राज्य की आबादी में अपनी बड़ी संख्या के आधार पर पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग के मतदाता सरकार बनाने को लेकर केंद्रीय भूमिका में हैं. इसके देखते हुए सभी पार्टी अब इन वर्गों को अपने पाले में लाने को को लेकर भरसक कोशिश करती रही हैं. अलग-अलग मीडिया रिपोर्टों की मानें तो राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी 50 फीसदी से अधिक है. वहीं, इसमें सबसे अधिक संख्या यादवों (करीब 14 फीसदी) की है. इस जाति की एक बड़ी संख्या आज भी राजद के साथ दिखती है. हालांकि, पिछले कुछ चुनावों में यादव वोटों का एक हिस्सा भाजपा के साथ भी जाता हुआ दिखा है.
वहीं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद कुर्मी जाति से आते हैं. इनकी संख्या चार से पांच फीसदी के बीच है. कुर्मी के साथ कुशवाहा वोटर भी जदयू के पक्ष में गोलबंद दिखाई पड़ते हैं. इनकी संख्या आठ से नौ फीसदी के बीच है. इन दोनों जातियों को लव-कुश कहा जाता है और इन पर जदयू का प्रभाव है. चुनावी पंडितों की मानें तो नीतीश कुमार के साथ होने से से भाजपा को इनका वोट मिलता रहा है. लेकिन अब जदयू और राजद के साथ होने से ‘लव-कुश’ का मेल अन्य पिछड़ी जातियों के साथ हो सकता है, जिससे महागठबंधन को एक बड़ा सियासी लाभ मिल सकता है. इसके अलावा इनमें वोटों के बिखराव की संभावना भी कम होती हुई दिख रही है. अगर ऐसा होता है तो 2024 के लोकसभा चुनाव में 39 लोकसभा सांसदों वाली भाजपा इकाई अंक में सिमट सकती है.
चेहराविहीन भाजपा
बिहार की मौजूदा राजनीति में नीतीश कुमार सबसे बड़ा चेहरा हैं और फिलहाल भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं दिखता, जो उनके सामने टिक पाएं. हालांकि, राज्य में भाजपा के पास अलग-अलग जाति के कई सारे नेता तो जरूर हैं, लेकिन राज्य की जनता उनमें से किसी एक नाम के पीछे आएंगी, ऐसी संभावनाएं काफी कम दिखती है.
भाजपा में बड़े-बड़े नाम तो दिखते हैं, लेकिन मतदाताओं को अपने पाले में करने की क्षमता नहीं दिखती है. पिछले कई चुनावों में भाजपा का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही रहे हैं. माना जा रहा है कि अगले विधानसभा चुनाव में भी नरेंद्र मोदी ही भाजपा की कमान संभालेंगे. अगर भाजपा राज्य के किसी एक नेता को चेहरा बनाती है तो इससे पार्टी के भीतर ही फूट पड़ने की जमीन तैयार हो जाएगी, ऐसा देखते हुए भाजपा इससे बचना चाहेगी. इससे साफ होता है कि मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार के सामने भाजपा की ओर से कोई चेहरा होने की संभावना शून्य है. माना जा रहा है कि इसके चलते चुनाव में नीतीश कुमार को बढ़त हासिल होगी.
हालांकि, कई राजनीतिक पंडितों का मानना है कि यह भाजपा के लिए राज्य में आत्मनिर्भर होने का भी अवसर है. इसके लिए भाजपा बिहार में एक ऐसा चेहरा खड़ा कर सकती है, जो अगड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच एक पुल का काम करे. इसके अलावा जदयू से रिश्ता टूटने के बाद भाजपा राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से अधिक से अधिक पर अपने उम्मीदवार उतार सकती है. साथ ही, संगठन के स्तर पर भी पहले की तुलना में अधिक क्षमता से काम कर सकती है. माना जाता है कि जदयू के साथ गठबंधन में रहते हुए ऐसा करने के लिए भाजपा और पितृ संगठन आरएसएस (संघ) के पास ‘फ्री हिट’ नहीं थी. लेकिन नीतीश कुमार के सामने यह कितना कारगर होगा, इसका जवाब वक्त के पास ही है.
पिछले तीन दशकों में बिहार की राजनीति की धुरी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ही रहे हैं. फिलहाल राजद सुप्रीमो खराब स्वास्थ्य के चलते सक्रिय राजनीति में नहीं हैं. और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव के पास उनके जैसा अनुभव नहीं है. ऐसी स्थिति में नीतीश कुमार सबसे बड़ा चेहरा दिखते हैं. और माना जाता है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में उनके बिना राज्य में किसी सरकार का बनना लगभग नामुमकिन सा है. ऐसी स्थिति में भाजपा तमाम मजबूरियों और प्रतिद्वंदिता के बावजूद नीतीश कुमार को अपने साथ एक बार फिर वापस लाना चाहेगी, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. तमाम किंतु-परंतुओं के बीच भाजपा का जदयू के साथ संबंध ‘आई लव नीतीश, आई हेट नीतीश’ जैसा है.