बिहार के कैमूर जिला स्थित पसाईं ग्राम पंचायत का एक गांव सोनबरसा है और मैं सोनबरसा का हूं. यहां से भारी संख्या में लोगों के दूसरे राज्यों में पलायन करने के चलते आधे घरों में ताले लटक रहे हैं. अगर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को छोड़ दिया जाए तो बिजली और सड़क के रूप में विकास के कई चेहरे इस गांव तक पहुंच चुके हैं.
रामपुर ब्लॉक के पसाईं ग्राम पंचायत में संभावित उम्मीदवार 20 अक्टूबर से अपना नामांकन पर्चा भरना शुरू कर देंगे. इसके साथ ही आधे घर, जिनके दरवाजों पर ताले नहीं लगे हैं, उन तक उम्मीदवार अपने समर्थकों के साथ पहुंचना शुरू कर देंगे. इसके अलावा अलग-अलग जगहों पर वोटरों की गोलबंदी शुरू हो जाएगी.
गांव के मतदाताओं की बैठकों में उम्मीदवारों की योग्यता की जगह किसके पक्ष में कहां कितना वोट है, ये बातें केंद्र में होती हैं. इसे लेकर मतदाताओं के अनुमानों का मुख्य आधार जाति ही है. इसके अलावा यह भी अनुमान लगाया जाता है कि किसी विशेष उम्मीदवार को कुछ अंतर-जातीय वोट मिलेंगे या नहीं. इससे भी हार-जीत तय होती हैं. इन सब चर्चाओं के आखिर में सभी इसी बात पर पहुंचते हैं कि कुछ भी हो अगर अपनी जाति के वोटों में सेंध नहीं लगा तो एक सजातीय मुखिया मिलना तय है.
इससे आगे जाने पर बैठक की जगह बदलने के साथ ही चुनावी समीकरण और मुद्दे भी बदल जाते हैं. कौन उम्मीदवार कितना खर्च कर रहा है? कौन सा प्रत्याशी कब से अपना जूता जमीन पर घिस रहा है? किस उम्मीदवार से किसका निजी संबंध है? इन सब सवालों के जवाब में ही चुनावी गणित को समझने की कोशिश की जाती है. यानी आप सामान्य अंकगणित भी समझते हैं तो इस बात को समझ पाएंगे कि भारतीय लोकतंत्र की प्राथमिक पाठशाला में भी दाखिल होना करना कितना महंगा हो गया है.
माना जाता है कि मुखिया पद के लिए लड़ने वाला उम्मीदवार 10 लाख रूपये तक खर्च कर देता है. बीते दिनों मैं एक चुनावी चर्चा में शामिल हुआ था. इसमें एक वोटर का दावा था कि पिछली बार मुखिया पांच हजार उनके हाथों में रख रहे थे, लेकिन उन्होंने नहीं लिया. इस पर किसी दूसरे ने कहा, ‘लिए काहे नहीं, ले लेना था. आ फिर भोट (वोट) उसी को देते न जिसे देना था, माल तो सबसे ले लो.’ इस पर किसी तीसरे ने कहा, ‘अरे जनता का तो यही न 10-20 दिन है, बाकी दिन कोई जनता को नहीं पूछता है.’ इसके बाद जिस व्यक्ति ने यह मामला उठाया था, उनके वहां से चले जाने पर एक ग्रामीण कहता है, ‘केतना (कितना) हरिश्चंद्र बन रहे हैं, जबकि तीन-तीन तरफ से माल ठेले थे, आ पूरा चुनाव घर में मुर्गा पकता था. अरे भैया, अबकी न भेंटाया अभी तक न, सो भौकाल बनाएंगे पांच जगह तभी न मिलेगा.’ इसके बाद सभी के हंसने साथ यह चर्चा खत्म होती है.
इन सब बातों से इतर स्थानीय चुनावों में महिलाओं की भागीदारी शून्य ही है. जो महिला सुरक्षित क्षेत्र भी है वहां मुखिया पति (एमपी) और सरपंच पति (एसपी) जैसे नए अनाधिकारिक पद प्रचलित हुए है. माना जाता है कि अधिकांश महिला प्रतिनिधियों के नाम पर फैसले इनके पति या प्रतिनिधि ही लेते हैं.
वहीं, अगर पंचायत चुनाव में मुद्दों की बात करें तो इस मामले में यहां की स्थिति नील बट्टे सन्नाटे की है. अब तक जो बातें चर्चा में हैं, उनका आधार भ्रष्टाचार है. लेकिन इन्हें मतदाताओं के बीच बुराई के रूप में नहीं देखा जा रहा है. जैसे कोई मतदाता कहता है कि फलाने आदमी पांच साल मुखिया रहा तो दो मंजिला मकान, चार पहिया और शहर में जमीन तो बना ही लिया. गांव में अधिकांश ये मान चुके हैं कि जो उम्मीदवार 10-20 लाख रुपये जो खर्च करके मुखिया बनेगा, वो कम से कम इतना कमाएगा ही. पंचायत चुनाव में कई लोगों के वोट आपसी ईर्ष्या-द्वेष जैसे भावों से भी प्रभावित होते हैं.
इसके अलावा स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र सहित सार्वजनिक हितों से जुड़े मुद्दों की जगह यह उम्मीद होती है कि अपना मुखिया होगा तो बीपीएल में नाम, इंदिरा आवास जैसी चीजें तो पक्की होंगी. एक ग्रामीण का मुझसे कहना था कि फ्री में कौन मांगता है, पर रेट डेढ़ (लाख) में पचास का है तो यहां 10-20 (हजार) में भी काम तो चल जाएगा. वहीं, गांव के एक बुजुर्ग ने कहा, ‘भइया हो, ई हल जुआंठ से हमको न लेना देना. कोई भी जीते पांच पैसा कमाएगा ही. बस अपना काम आसानी से हो जाए, आ पांच बार दौड़ना न पड़े और क्या?’
ये सब बातें सुनकर लगता है कि बिहार के गांवों में कोरोना महामारी की तरह ही भ्रष्टाचार भी अब न्यू नॉर्मल की तरह हो चुका है. सभी इससे परेशान होने के बावजूद इसके साथ तालमेल करना सीख चुके हैं. यह सब प्रखंड कार्यालय में अधिकतर कर्मचारियों के स्थानीय होने के बावजूद है. एक ग्रामीण इस पर कहते हैं, ‘अरे हाथ में पॉवर आने पर सब साहब हो जाते हैं बाबू, कोई अपना नहीं रहता. बस चले तो बाप से भी बिना लिए दिए काम न करें सब.’ इन सभी से मिलकर आगे बढ़ता हूं तो सामने एक उम्मीदवार अपने समर्थकों के साथ दिखते हैं. वे मुझसे नामांकन में शामिल होने और मतदान के दिन गांव में रहने की अपील करते हैं. वे मुझसे हंसते हुए कहते हैं, ‘सेवा में कोई कसर नहीं रखूंगा. कभी कोई काम हो तो बताइएगा, रुकेगा नहीं.’ उनके साथ के एक व्यक्ति आंख मारते हुए धीमी आवाज में कहते हैं, ‘अपने समाज से ही हैं भइया.’
गांव के लोगों से मिलते-मिलते सूरज के भी क्षितिज से मिलने का समय हो जाता है. बिहार पंचायत चुनाव की तरह ही आसमान में कई रंग दिखते हैं, लेकिन इनमें लोकतंत्र का रंग धूमिल ही दिखता है.
(*अगर आपके भी इलाके में स्थानीय, विधानसभा या लोक सभा चुनाव है. आपको लगता है कि आपके बुनियादी मुद्दे चुनावी शोर-गुल में गुम हो चुके हैं तो आप भी अपनी आवाज हम तक पहुंचा सकते हैं. इसके लिए हमारा पता है : electionnama@gmail.com )