कैसे अन्ना आंदोलन ने 43 साल के एक वोटर को पहली बार वोट देने के लिए मजबूर किया था

अपनी जिंदगी के चार दशक जी लेने के बाद एक मतदाता के रूप में मेरी जिंदगी की शुरुआत साल 2010 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के जनांदोलन के साथ शुरू हुई थी

भारतीय संविधान देश के 18 साल से अधिक उम्र के नागरिकों को वोट देने का अधिकार देता है. लेकिन मुझे अपनी जिंदगी में पहली बार वोट देने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा. मैंने 43 साल की उम्र में पहली बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था.

इससे पहले कई वर्षों के छद्म लोकतंत्र के करतब और चुनावी तांडव के रस्सा-कस्सी के खेल में मेरे जैसे मतदाता की दिलचस्पी मतदान करने को लेकर खत्म होती जा रही थी. लेकिन जिंदगी के चार दशक जी लेने के बाद एक मतदाता के रूप में मेरी जिंदगी की शुरुआत साल 2010 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के जनांदोलन के साथ शुरू हुई थी. बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि, कैडर और शह-मात के खेल से दूर इस जनांदोलन ने हम जैसे लोगों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति एक उम्मीद की रौशनी जगाई थी. इसका सशक्त पक्ष यह था कि अपनी बुनियादी जरूरतों को लेकर हर हमेशा कतार में खड़े रहने को अभिशप्त आम आदमी में व्यवस्था परिवर्तन को लेकर उत्साह और उम्मीद का संचार हुआ था.

इसी उत्साह और उम्मीद की खाद-पानी पर मैंने डिजिटल क्रांति का सहारा लेते हुए मैंने घर बैठे मतदाता पहचान पत्र के लिए आवेदन किया. मैं अब तक यह काम प्रवासी जिंदगी के कारण बन नहीं पाया था. वोटर कार्ड बनाने को लेकर मेरे लिए सुखद अनुभव यह रहा कि बीएलओ के गंभीर और जटिल सत्यापन के बाद मेरे हाथों में खुद का वोटर कार्ड आ गया था. यह पिछले कई वर्षों से बोझिल और दुरूह प्रक्रिया के कारण लंबित था.

देश में लोकपाल कानून बनने के बाद साल 2015 का दिल्ली विधानसभा चुनाव मेरा पहला चुनाव था, जिसमें मैं लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बना था. कई कतारों से गुजरने और तमाम तरह की प्रक्रियाओं को पूरा करने के बाद मेरी मतदान की वर्षों की दबी इच्छा आखिरकार पूरी हुई.

दिल्ली के तिलकनगर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में करीब 15 लाख मतदाताओं में एक मेरा भी नाम दर्ज था. इस सीट पर आम आदमी पार्टी (आप) के जरनैल सिंह ने भाजपा उम्मीदवार राजीव बब्बर को 19,890 वोटों से मात दी थी. वहीं, पूरी दिल्ली में भी भाजपा की उम्मीदों पर ‘झाड़ू’ चल गया था. इस चुनाव में ‘आप’ ने दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटों पर जीत दर्ज की थी. केंद्र की सत्ताधारी पार्टी भाजपा को केवल तीन सीटों से संतोष करना पड़ा था.

दिल्ली विधानसभा में मतदान के इस अनुभव ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को समझने में मुझे कई स्तरों पर समृद्ध किया था. पूरे देश में होने वाले चुनावों का मनोविज्ञान और चरित्र बिल्कुल अलग-अलग है. दिल्ली का चुनाव मेरे गृह राज्य बिहार के चुनाव से बिलकुल अलग लगा. अमूनन हिंसा और झड़प की घटनाएं अन्य राज्यों की तरह यहां बेहद कम देखने को मिलती है. छावनी में बदल दिए गए मतदान केंद्रों पर भारी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती के बाद बमुश्किल ही कोई अप्रिय घटना होती है. इसके अलावा जातीयता का जहर यहां के मतदाताओं में थोड़ा कम ही नजर आता है. चुनावी नतीजे भी इन बातों को साबित करते हैं.

एक और चीज है, जो दिल्ली को दूसरे राज्यों से अलग करती है. दिल्ली में चुनाव के समय में अलग-अलग पेशे से मौसमी कार्यकर्ताओं की बाढ़ आ जाती है, जो चुनाव खत्म होने के साथ ही वे अपने मूल पेशे की ओर लौट जाते हैं. इसके अलावा अलग-अलग राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं या समर्थकों के बीच टकराव भी नहीं होता है, जैसा कि उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में दिखता है.

समर कुमार दिल्ली में रहते हैं और लोक सभा सचिवालय में सहायक संपादक के पद पर हैं

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