जनसत्ता अखबार के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने नानाजी देशमुख पर एक आलेख- ‘चित्रकूट के घाट पर’ पांच जुलाई, 1992 को लिखा था. इसे राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ‘जीने के बहाने’ (प्रभाष जोशी के आलेखों का संकलन) पुस्तक में शामिल किया गया है.
नानाजी देशमुख के जन्मदिन पर हम इसके एक अंश को प्रकाशित कर रहे हैं :
नानाजी देशमुख यानी विचारबद्ध (या विचारणीय ?) लोगों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऊंचे ऑपरेटर. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी एक फासिस्ट हिंदू संगठन. ठप्पा लगाकर आदमी और संगठन को इस तरह एक खाने में डाल देने वाले हमारे विचारबद्ध लोगों को बड़ी आसानी है. वे दुनिया को काले और धौले (सफेद) में देखते हैं. उन्हें सूरज की किरणों में सात रंग और उनसे बनने वाले सात सौ शेड्स देखने-समझने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ती.
दुनिया और लोगों को काले और धोले में बांट लेने से बुद्धि को कष्ट नहीं देना पड़ता. अपने को हमेशा किसी के खिलाफ, किसी से हमेशा संघर्षरत और किसी को मिटाकर धूल में मिला देने में लगे लोगों को ऐसा उदार, सर्वग्राही दृष्टिकोण स्वीकार भी नहीं होता.
अंतर विरोधों की साधना करने वाले जानते हैं कि काले और धौले के बीच अनगिनत रंगों की छायाएं होती हैं. उन्हें देख सकने के लिए आंखों को तार की तरह खूब बारीकी से मिलाना पड़ता है. जैसे, सुरों, तानों और लयों को पकड़ने के लिए कानों को तैयार करना पड़ता है. वाद का ठप्पा रोडरोलर की तरह विचारों के कोमल दूब को कुचलता जाता है. इस ठप्पेबाजी से बचना चाहिए.
विचारधारा का सबसे कड़ा आग्रह करने वाले साम्यवादियों और आर्य समाजियों (जिनकी संतानें भाजपा और संघ में नहीं, कांग्रेस व दूसरी पार्टियों में भी पाई जाती हैं) ने सबसे अधिक वाद-विवाद चलाए और ठप्पेबाजी की. साम्यवादी सभी धार्मिक कट्टरपंथियों के खिलाफ रहे हैं, क्योंकि वे भी विचारबद्ध कट्टरपंथी हैं.
यह देश न साम्यवादी राज्य हुआ, न हिंदू राष्ट्र बना तो इसलिए कि यह अंतरविरोधों को साधने वाला देश है. मोहनदास करमचंद गांधी अगर ज्यादा से ज्यादा भारतीयों के मान्य होकर महात्मा गांधी हुए तो इसलिए कि वह अपने चारों दरवाजे और सभी खिड़कियां खुली रखने और दुनियाभर की हवाओं को आने-जाने देकर भी वे अपनी धरती में जड़े जमाए रहे. उनकी शक्ति का स्रोत उनकी लोक संग्रह वृत्ति में था. जो एक दूसरे को फूटी आंखों न सुहाए और मौका लगे तो फाड़ खाएं, ऐसे अनगिनत लोगों को गांधी ने अपने साथ जोड़ा. उनसे योग्यता और क्षमता भर काम लिया और उन्हें आखिर कुछ न कुछ बनाकर ही छोड़ा. देशभर में एक-दूसरे को जानने, समझने और बरतने वाली शिवजी की एक बारात गांधी ने बनाई थी. उसके ज्यादा बाराती अब बचे नहीं हैं और सक्रिय तो और भी कम हैं.
नानाजी देशमुख मुझे उसी जमात के बचे-खुचे लोगों में से एक लगते हैं. मुझे मालूम है कि सब उन्हें संघी मानते हैं और वे खुद भी अपने को एकनिष्ठ स्वयंसेवक ही कहते हैं. नाथूराम गोडसे के सूत्र को खोजकर संघ को भी गांधी की हत्या के प्रेरक संगठनों में माना गया है. और अब हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी स्वदेशी आंदोलन चला रहा है, लेकिन गांधी को मानने वाले संघ में कितने लोग हैं? बुद्ध, महावीर और गांधी की अहिंसा को हिंदुओं के पराभव के लिए जिम्मेदार मानने वाले प्रतिक्रियावादी संघ में, बजरंग दल से कोई कम नहीं हैं. लेकिन नानाजी देशमुख के मित्र और परिवार – गांधी,मार्क्स, सावरकर, अरविंद और एडम स्मिथ सबको मानने वालों में हैं. उन्होंने विवाह नहीं किया, इसलिए जिसे अपना कहते हैं, वैसा उनका कोई परिवार नहीं है. लेकिन उन्हें देश में कहीं भी होटल, लॉज, धरमशाला या सर्किट हाउस में नहीं रूकना पड़ता. सब जगह उनके परिवार हैं और उन्हीं में वे रहना पसंद करते हैं. प्रवास उनके संबंधों के विस्तार का स्थायी माध्यम है. अभी उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र और मराठी में तो छोटे को नाना कहते हैं. मैं कोई साठ साल से उत्तर भारत और हिंदी में हूं क्योंकि यहां नाना, मां का बाप होता है.
पटना में जब जेपी पर जब लाठी चलाई गई तो उसे पहले अपने पर लेने वाले नानाजी देशमुख ही थे. उस दिन के सभी फोटुओं में नानाजी कहीं न कहीं दिखते हैं, क्योंकि वे जेपी को अकेला छोड़ने को तैयार नहीं थे. जेपी के गांधी, सर्वोदयी और समाजवादी संगी साथियों को नानाजी देशमुख पर भरोसा करना कई सुहाता नहीं था. जेपी भी पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ को शंका व अविश्वास से ही देखते थे. लेकिन संपूर्ण क्रांति के दौरान उनका रवैया सर्वाग्राही हुआ. वे नक्सलवादियों से भी बात करते थे, संघियों और जनसंघियों से भी. वे किसी को भी उस आंदोलन से दूर नहीं रखना चाहते थे. उन कम्युनिस्टों और बुद्धिजीवियों को भी नहीं, जो संपूर्ण क्रांति का मजाक उड़ाया करते थे. देश की एक धारा के दो किनारों को जोड़ने वाले जेपी एक पुल नानाजी देशमुख थे.
जेपी खुद ही नानाजी को बताते थे कि उनके सर्वोदयी और समाजवादी संगी साथी किस तरह उनसे झिड़कते हैं और नानाजी भी जानते थे कि जेपी से उनके साथ को संघ में किस तरह देखा जाता है. जनता पार्टी की सरकार (1977) बनने के बाद सरकार के बजाय जेपी के साथ रहने वालों में नानाजी भी एक थे. मोरारजी देसाई सरकार में उन्हें उद्योग मंत्री होना था. लेकिन नानाजी मंत्री नहीं बने. फिर साल भर बाद राजनीति से संन्यास लेकर रचनात्मक कार्य में लगने की घोषणा की और उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में बैठ गए. जहां जयप्रभा आश्रम चल रहा है.