दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में अगर कोई अपनी जिंदगी के 18 बसंत देख चुका है, तो संवैधानिक तौर पर वह अपना प्रतिनिधि चुनने के योग्य मान लिया जाता है. देश में वोट देने के लिए कम से कम 18 साल की उम्र निर्धारित करने का आधार यह माना गया कि इस उम्र में कोई व्यक्ति यह फैसला कर सकता है कि उसका वोट किस उम्मीदवार या पार्टी को जाना चाहिए. लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ था.
मेरा पहला चुनाव 19 साल की उम्र में साल 2000 का बिहार विधानसभा चुनाव था. यह साल भारत के चुनावी इतिहास में इसलिए भी ऐतिहासिक है, क्योंकि चुनाव आयोग ने साल 2000 से ही मतदाता पहचान पत्र में फोटो का होना अनिवार्य कर दिया था. इससे पहले 1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषण के नेतृत्व में आयोग ने चुनावी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मतदाता पहचान पत्र बनाने का आदेश दिया था. इसके अलावा 2000 के विधानसभा चुनाव में ही पहली बार राज्य में ईवीएम का इस्तेमाल भी हुआ था.
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लेकिन पहली बार वोट देने वाले युवाओं सहित दूसरे मतदाताओं के लिए भी ईवीएम से वोट देने की बात बिलकुल नई थी. इसे लेकर हम युवा वोटरों के बीच मजाक में कहा था, ‘नया वोटर, नया ईवीएम और नई सरकार, बढ़िया है.’ दूसरी ओर, नेताओं के लिए भी ईवीएम ने काम बढ़ा दिया था. राजद सुप्रीमो अपनी चुनावी रैलियों में ईवीएम का सैंपल लेकर जाते थे और मतदाताओं को इसके बारे में बताते थे.
चुनाव आयोग के आदेश के अनुरूप ही मेरा मतदाता पहचान पत्र बिहार के मुजफ्फरपुर जिला स्थित मुशहरी सतपुरा पहुंचा था. लेकिन वोटर कार्ड में मेरा नाम गलत लिखा था और इसने परिवार के लोगों के मुश्किलें बढ़ा दीं. हालांकि, बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियां चल रही थी. सो, इसके लिए तो अधिक भाग-दौड़ करना पड़ा, लेकिन कार्ड में मेरा नाम सही हो गया. जब मतदान का दिन नजदीक आया तो और भी कुछ गड़बड़ियां हुईं. वोट देने से दो दिन पहले ही राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं ने हमें बताया कि हमारा वोटिंग बूथ बदल दिया गया है. अब सतपुरा की की जगह आमगोला के एक स्कूल को केंद्र बनाया गया है. इससे हमारे नारे में एक चीज और जुड़ गई थी. अब हम कहने लगे, ‘नया वोटर, नया ईवीएम और नई सरकार, नया बूथ, बढ़िया है.’ ये बातें मुझे उत्साहित कर रही थी और मैं नई सदी में बतौर युवा मतदाता अपने वोट के इस्तेमाल से बेहतर सरकार बनाने के जोश से लबरेज हो रहा था.
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हालांकि, दो दशक बाद मुझे याद नहीं है कि मैंने अपना पहला वोट किस दल और किस उम्मीदवार को दिया था. लेकिन इतना जरूर याद है कि मैंने अपने पहले मताधिकार का इस्तेमाल बतौर परिपक्व वोटर के तौर पर नहीं किया था. मेरी राजनीतिक–सामाजिक समझदारी जाति-धर्म और वर्ग से जुड़े हितों से प्रभावित थी. उस वक्त जो नेता अपनी बातें चौक-चौराहे या मोहल्ले में आकर सुना जाते. उनकी बातों का असर मतदान करने वक्त तक रह जाता था. पहली बार मतदान करने वाले एक युवा मतदाता के दिलो-दिमाग पर तो इसका सीधा प्रभाव पड़ता था.
जब पहली बार मैं ईवीएम का बटन दबा रहा था तो उस वक्त मैं – ‘सोच-समझ कर वोट डालेंगे, अपनी स्थानीय समस्याओं को ध्यान में रखकर वोट करना चाहिए, हमारा मतदान प्रत्याशी की योग्यता के आधार पर होना चाहिए, अच्छा नेता बेहतर राज्य और मजबूत राष्ट्र का निर्माण कर सकता है.’ इन जरूरी बातों से अनजान था. इसकी बड़ी वजह वह शिक्षा व्यवस्था थी, जिसमें केवल रट्टा मारना सिखाया जाता है. यह मेरे भीतर परिपक्वता लाने में सबसे बड़ी बाधा थी, जिसने मुझे यह नहीं समझने दिया कि किसी लोकतंत्र में एक वोट की कीमत क्या होती है?
प्रत्युष प्रशांत दिल्ली-एनसीआर में रहते हैं और उन्होंने जेंडर और मीडिया विषय पर जेएनयू विमन स्टडीज से पीएचडी पूरा किया है
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