कांशीराम ऐसा क्यों मानते थे कि गांधीजी ने ‘चमचा युग’ को जन्म दिया

कांशीराम ने ‘चमचा’ शब्द का इस्तेमाल उन दलित नेताओं के लिए किया है, जिन्होंने निजी फायदे के लिए समुदाय के हितों को बेच दिया

देश में दलित अधिकारों के लिए आवाज उठाने वालों में डॉ. बीआर आंबेडकर के साथ कांशीराम का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है. राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर दलितों की मौजूदगी को हासिल करने के लिए 1984 में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी गठित की थी. इसके नौ साल बाद यानी 1993 में दलित महिला मायावती को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर बैठाकर उन्होंने एक प्रभावशाली तबके के नीचे की जमीन खिसका दी थी.

यह कांशीराम की जमीनी कोशिशों का ही असर है कि राजनीतिक तौर पर मायावती के कमजोर होने के बावजूद दलितों का एक हिस्सा आज भी बसपा के साथ जुड़ा हुआ है. यह कहना गलत न होगा कि राजनीतिक रूप से दलितों को सशक्त बनाने का काम आंबेडकर के बाद कांशीराम ने ही किया है. लेकिन आंबेडकर की तरह उनके विचारों को जानने के अधिक स्रोत हमारे पास नहीं है.

कांशीराम ने अपने जीवन में केवल एक किताब लिखी है. इसे उन्होंने ‘चमचा युग’ नाम दिया. वहीं इसे प्रकाशित करने की तारीख उन्होंने 24 सितंबर, 1982 को चुनी थी, क्योंकि इस दिन कांग्रेस पूना समझौते (24 सितंबर, 1932) की स्वर्ण जयंती मनाने की तैयारी में थी.

पूना समझौता महात्मा गांधी और डॉ. बीआर आंबेडकर के बीच किया गया था. इसके तहत दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र के प्रावधान को निरस्त कर प्रांतीय विधानमंडलों में दलित वर्गो के लिए सुरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 कर दी गई. वहीं, केंद्रीय विधानमंडल में भी सुरक्षित सीटों की संख्या में 18 फीसदी की बढ़ोतरी की गई थी. हालांकि, इससे आंबेडकर खुश नहीं थे.

‘चमचा युग’ में कांशीराम ने पूना पैक्ट पर विस्तार से लिखा है. इसमें उन्होंने समझौते के बाद आंबेडकर की टिप्पणी को भी दर्ज किया है. उस समय आंबेडकर का कहना था, ‘मुझे दो विकल्पों में से एक का चुनाव करना था. मेरे सामने आम इंसानियत का हिस्सा होने के नाते एक ओर निश्चित मृत्यु से गांधीजी को बचाने का फर्ज था. दूसरी ओर प्रधानमंत्री (ब्रिटिश प्रधानमंत्री- रैम्जे मैक्डोनल्ड) के दिए गए अछूतों के राजनीतिक अधिकार को बचाने की समस्या भी मेरे सामने थी. मैंने मानवता की पुकार को सुना और महात्मा गांधी की संतुष्टि के अनुरूप सांप्रदायिक निर्णय में संशोधन करने की रजामंदी देकर महात्मा गांधी की जान बचाई.’

इससे पहले 16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैक्डोनल्ड ने सांप्रदायिक पंचाट पेश किया था. इसके तहत हरेक अल्पसंख्यक समुदाय के लिए विधानमंडलों की कुछ सीटों को सुरक्षित कर दिया गया, जिस पर सदस्यों का चुनाव पृथक निर्वाचन मंडल को करना था. इसमें दलितों के लिए भी सीटें सुरक्षित करने का प्रावधान शामिल था. गांधीजी ने इसका पुरजोर विरोध किया और अपनी मांग मंगवाने के लिए 20 सितंबर, 1932 को आमरण अनशन पर बैठ गए थे. इसके कुछ दिन बाद ही गांधीजी और आंबेडकर के बीच पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए गए.

कांशीराम लिखते हैं, ’24 सितंबर, 1932 को पूना पैक्ट दलित वर्गों पर थोप दिया गया और उसी के साथ चमचा युग की शुरुआत हो गई. हिंदुओं ने इस बात का ख्याल रखा कि दलितों के ऊपर से उनका नियंत्रण समाप्त न होना पाए. इसे उन्होंने संयुक्त निर्वाचक मंडल के जरिए हासिल कर लिया. इससे अछूतों के प्रतिनिधि केवल नाममात्र के प्रतिनिधि बनकर रह गए, न कि सच्चे प्रतिनिधि. कोई भी दलित जो हिंदुओं का प्रतिनिधि और उनका चमचा बनने के लिए सहमत न हो वह संयुक्त निर्वाचन के तहत चुनाव जीतने में सफल नहीं हो सकता.’

कांशीराम की जीवनी  (कांशीराम – बहुजनों के नायक) के लेखक बद्रीनारायण लिखते हैं, ‘गांधी ने आमरण अनशन के माध्यम से आंबेडकर को धमकी दी और दलित नेता को अपनी मांग छोड़ने के लिए ब्लैकमेल किया. कांशीराम का कहना है कि इस एक चीज ने अनुसूचित जाति के राजनीतिक भाग्य को बंद कर दिया और चमचा युग को जन्म दे दिया.’
कांशीराम की इस जीवनी के मुताबिक कांशीराम का कहना था कि भारत में ऐसा कोई निर्वाचन क्षेत्र नहीं है, जहां दलित मतदाताओं की संख्या 30 फीसदी से अधिक हो, इसलिए दलितों को अपनी जीत के लिए हिंदू और दूसरे वोटों के लिए मुख्यधारा की पार्टियों पर निर्भर होना पड़ा. इस तरह दलितों के चुनाव जीतने की संभावना ऊंची जातियों के नेताओं के साथ अच्छे संबंधों पर टिक गया.

कांशीराम का आगे मानना था कि जब ऊंची जाति के शासकों को दलितों की जरूरत महसूस होती थी या इनकी सत्ता को सच्चे दलित नेता चुनौती देते थे, उस समय इन चमचों को सामने लाकर खड़ा कर दिया था. कांशीराम ने ‘चमचा’ शब्द का इस्तेमाल उन दलित नेताओं के लिए किया है, जिन्होंने अपने निजी हित के लिए समुदाय के हित को बेच दिया.
बद्रीनारायण केसी दास की किताब ‘इंडियन दलित’ के हवाले से कहते हैं कि कांशीराम ने जगजीवन राम और ‘अन्य कठपुतलियों’ की आलोचना की है. कांशीराम का मानना था कि जगजीवन राम एक नेता नहीं बल्कि कठपुतली थे, जो जनता दल में शामिल (1977) होने से पहले कांग्रेस में थे.

जगजीवन राम के बारे में कांशीराम ने 1989 में कहा था कि वे प्रधानमंत्री बनना चाहते थे लेकिन कोई एक कठपुतली को प्रधानमंत्री नहीं बनाएगा. इसके बाद अप्रैल, 1992 में उन्होंने कहा था, ‘बाबू जगजीवन राम यथास्थितिवादी शक्तियों द्वारा तैयार किए गए थे और वे यथास्थितिवादी शक्तियों द्वारा ऊपर से नीचे उतारे गए थे.’

वे बिहार के दलित नेता रामविलास पासवान को भी इसी सूची में रखते थे. 1992 में कांशीराम ने कहा था, ‘पासवान अपने ही समुदाय में ‘ठाकुर का ठप्पा’ के रूप में जाने जाते हैं. जब ठाकुर चाहते हैं तो वे जीतते हैं. वे अनुसूचित जाति के लोगों को वोट डालने नहीं देते हैं, वे जाते हैं और पासवान के पक्ष में पांच या छह लाख वोट डाल देते हैं.’

बद्रीनारायण लिखते हैं कि इस तरह या दूसरे तरीके से चमचा युग ने आंबेडकर के बाद के दलित नेतृत्व की सभी कमियों को उजागर किया है. साथ ही, इस पर भी जोर दिया कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत में दलितों की इतनी दयनीय स्थिति का मुख्य कारण दलित नेतृत्व खुद है.

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