जेपी के मुताबिक कब लोकतंत्र एक बहुत बुरी व्यवस्था बन जाती है

जेपी को यह पक्का विश्वास था कि पूंजीवादी, समाजवादी या कम्युनिस्ट प्रणाली, जिसने भी भौतिकवादी प्रवृति को रचा है, उसके साथ लोकतंत्र मेल नहीं खाता

लोकतंत्र की विशेषताओं के आधार पर इसका विश्लेषण करने वाले देश-दुनिया के तमाम विशेषज्ञ भारत के लिए इसे बेहतर व्यवस्था बताते नहीं थकते. इसके कई आधार भी हैं, जो उनकी बातों को साबित करते हैं. भारत के पास एक संविधान है, जो विविधता से भरे हुए इस देश में एकता और सभी के लिए समानता की पैरवी करता है. वहीं, वैसे तबके जो विकास की दौड़ में पिछड़ गए हैं, उनके लिए विशेष प्रावधान सुनिश्चित करके उन्हें भी आगे बढ़ाने की बात करता है. इसके अलावा भारतीय संविधान के तहत ही देश में एक शासन प्रणाली भी है और शासकों के चुनाव की व्यवस्था भी तय है. लेकिन इतना कुछ होने के बाद भी जयप्रकाश नारायण (जेपी) की नजरों में किसी लोकतंत्र के लिए ये बातें काफी नहीं थीं.

अपनी किताब ‘भारतीय राज-व्यवस्था की पुनर्रचना : एक सुझाव’ में जेपी ने लोकतंत्र पर विस्तार से अपनी बातें सामने रखी हैं. इस किताब को वाराणसी के सर्व सेवा संघ ने प्रकाशित किया है. इसके पहले अध्याय ‘लोकतंत्र : कुछ सामान्य विचार’ में वे किसी देश में लोकतंत्र की सफलता या विफलता की जिम्मेदारी वहां के लोगों में नैतिकता की भावना और आचार-विचार के कंधों पर डालते हैं.

जेपी लिखते हैं, ‘संविधान, शासन प्रणाली, दल, निर्वाचन- ये सब लोकतंत्र के अनिवार्य अंग हैं, लेकिन जब तक लोगों में नैतिकता की भावना नहीं रहेगी, लोगों का आचार-विचार ठीक न रहेगा, तब तक अच्छे से अच्छा संविधान और राजनीतिक प्रणाली के बावजूद लोकतंत्र ठीक से काम नहीं कर सकता.’ इसके आगे उन्होंने लोकतंत्र के लिए जरूरी नैतिक गुण और मानसिक प्रवृतियों की एक सूची भी दी है. इनमें सत्य, अहिंसा और सहयोग-समानता की भावना के साथ-साथ दूसरे के विचारों को जगह देना शामिल हैं.

हालांकि, जेपी का मनना था कि मौजूदा भौतिकवाद (उनके समय में भौतिकवाद आज की तुलना में काफी कम ही रहा होगा) लोकतंत्र को कमजोर करने की एक बड़ी वजह के रूप में सामने आया है. उनका मानना था कि कोई समाज चाहे वह पूंजीवादी हो, समाजवादी हो या फिर कम्युनिस्ट, इस पर अब कोई विवाद नहीं है कि जीवन के सभी तत्वों पर भौतिकवाद के बादल छा गए हैं. हालांकि, जेपी यह भी मानते थे कि मनुष्य पदार्थ और भावना से मिलकर बना है, इस लिहाज से उसकी भौतिक जरूरतें तो होती हैं और इसका पूरा होना भी जरूरी है. लेकिन इसके साथ एक चेतावनी भी देते हैं.

वे कहते हैं, ‘अगर मनुष्य की भौतिक जरूरतें सीमा का बंधन तोड़ दें और वह उसकी सारी गतिविधियां अधिक से अधिक भौतिकवादी जरूरतों को पूरा करने में लगा रहे, तो समाज में असमानता की स्थिति पैदा हो जाती है. खुद व्यक्ति अपने जीवन में भौतिकवाद के अतिरिक्त कुछ नहीं रह जाता है.’

इसके आगे वे अपनी बातों पर जोर देते हुए लिखते हैं, ‘मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मौजूदा उद्योगवाद – चाहे यह पूंजीवादी, समाजवादी या कम्युनिस्ट प्रणाली हो , जिसने भी भौतिकवादी प्रवृति को रचा है, उसके साथ लोकतंत्र मेल नहीं खाता है. दोनों एक साथ नहीं चल सकते.’ जेपी लोगों से कहते हैं कि वे आजादी और स्वशासन चाहते हैं तो उन्हें अपनी इच्छा से अपनी जरूरतें कम करनी होंगी. अगर ऐसा नहीं होता है तो इसके नतीजे आपसी संघर्ष, दमन, उत्पीड़न और युद्ध के रूप में सामने आएंगे. और फिर इसके चलते उत्पादन में बढ़ोतरी का एक ऐसा सिलसिला चल पड़ेगा, जिससे लोकतंत्र लुंज-पुंज होकर नौकरशाही का चरण-चुंबन करने लगेगा.

जेपी ने अपनी इन बातों के लिए महात्मा गांधी के करीबी रह चुके प्यारेलाल की किताब ‘लास्ट फेज’ का भी हवाला दिया. इसमें प्यारेलाल ने लिखा था कि सांसारिक सुख हासिल कराने वाली चीजों के पीछे पड़े रहना लोकतंत्र के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है. भौतिकवाद ने एक ऐसी समाज की रचना कर डाली है, जिसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता ही नहीं चलता. वह लापता हो गया है.

प्यारेलाल अपनी किताब में आगे कहते हैं, ‘व्यक्तिप्रधान समाज में एक सर्वशक्तिसंपन्न कार्यपालिका का उदय हो गया है, जिसमें नियोजित अर्थव्यवस्था के तहत नेताओं, योजना बनाने वालों, विशेषज्ञों और नौकरशाहों की बड़ी भारी जमात उठ खड़ी हुई है. अब विशेषाधिकार नया जामा (कपड़ा) पहनकर सामने आ गया है. विपुलता के नाम पर समानता की बलि चढ़ा दी गई है.’

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