अक्टूबर, 2005 का बिहार विधानसभा चुनाव मेरा पहला चुनाव था. इससे पहले फरवरी, 2005 में भी विधानसभा चुनाव हुए थे. लेकिन कोई भी पार्टी सरकार बनाने के लिए जरूरी सीट (122) नहीं जीत पाई थी. इसके बाद राज्यपाल बूटा सिंह की सिफारिश पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था.
इस चुनाव में विकास का मुद्दा बनना वाकई में हमारे लिए एक बड़ी बात थी. विकास का कोई साफ खांचा तो हमारे मन में नहीं था. लेकिन ख्यालों में अपने सोनबरसा गांव से भभुआ तक पक्की सड़क और गांव में बिजली के तार तो होते ही थे. मुझे याद है कि पढ़ाई के दिनों में पड़ोस के कमरे में रहने वाले रमापति बिहार का परिचय ‘जहाँ दिखी बिना तरवा के पोल हो, त जनीह बिहार आ गईल’ कह कर देते थे. उस वक्त मैं ये सोचता कि बिहार में कोई मजबूत मुख्यमंत्री बनते तो शायद पिछड़ेपन की इस छवि को बदल पाते!…..और हम भी अपने दोस्तों को कैमूर की पहाड़ियों की तलहटी में बसा अपना प्यारा सा गांव दिखा पाते. विकास का यह ख्याली पुलाव ही था, जो मुझे इलाहबाद विश्वविद्यालय से चुनाव के समय गांव तक खींच लाया था. उस वक्त मैं 19 साल का था. लेकिन शायद मतदाता पहचान पत्र बनाने वाले की गलती की वजह से इसमें मेरी उम्र 26 साल दर्ज थी.
जब मैं वोट देने के लिए घर पहुंचा तो दक्षिण बिहार के भभुआ विधानसभा सीट पर सियासी पारा चढ़ चुका था. अंधेरा होने के कई घंटे बाद तक चुनावी बैठकियां होती रहती. इनमें आम तौर पर एक ही जाति के लोग होते थे. अगर उस वक्त कोई दूसरी जाति के लोग आते थे तो इनकी बातें ही बदल जाती थीं. लेकिन उस वक्त मुझे समझ नहीं आता था कि क्यों अब तक जिस पार्टी और उम्मीदवार के पक्ष में ये सब गोलबंद थे, उसकी जगह किसी और के समर्थन में बोलना शुरू कर देते.
हमारे जैसे युवा वोटरों के लिए यह सब बहुत मजेदार होते हुए भी चिंता का कारण होता था. आखिरकार जब चुनावी चक्के को जातिवाद की धुरी पर ही घूमना है तो फिर कोई क्यों स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी चीजों को मुद्दा बनाएगा! मुझे याद है कि जब चुनाव प्रचार आखिर दौर में था, एक प्रत्याशी मेरे इस सवाल पर उखड़ गए थे कि क्या वे भभुआ में विश्वविद्यालय की मांग करेंगे? इससे उनके साथ के एक व्यक्ति ने हमको यह कह कर डपट दिया कि क्या यूनिवर्सिटी खाने को देगा ! उस समय पापा ने कहा था, ‘ठीक ही तो पूछ रहा है लड़का. इसको वोट देना है तो पूछेगा ही, चीजों को जानेगा, तभी न वोट देगा.’
अब अगर मैं राजनीति की बात करूं तो वोटरों के बीच इस बात की चर्चा थी कि भभुआ विधानसभा सीट पर बसपा के उम्मीदवार रामचंद्र सिंह यादव और भाजपा के आनंद भूषण पाण्डेय में कांटे की टक्कर है. लेकिन इन सब सियासी बातों के बीच मेरी नजर में जदयू नेता नीतीश कुमार की छवि बिहार के संभावित उद्धारक की थी. ऐसे में उम्मीदवार कौन हैं? किस जाति से हैं? उनकी शिक्षा का स्तर क्या है? ये सब बातें मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण नहीं थे. मुझे केवल इतना ही समझ में आता था कि केवल सत्ता परिवर्तन ही बिहार की छवि बदल सकती है.
मुझे याद है कि वोटिंग के दिन अपने मन में खुद के बनाये हुए खांचे लिए हुए पहली बार वोट देने के लिए बूथ की ओर चले जा रहे थे. घर से निकलने के बाद रास्तेभर वोटर कार्ड को किसी गौरव के भाव से टटोलते हुए मैं बूथ पहुंचा था. मतदान की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए आखिर में जब मतदान कक्ष में ईवीएम की एक बटन पर अंगुली दबाने से उठी पीं की आवाज इस बात की गवाही थी कि अब मैं भी भारतीय लोकतंत्र का एक हिस्सेदार बन चुका हूं. बूथ से वापस लौटते हुए मेरे दिमाग से केवल एक ही चीज चल रही थी कि शायद मेरा एक वोट बिहार की किस्मत बदल दे. लेकिन एक महीने बाद इस चुनाव के नतीजे मेरे लिए खट्ठा-मीठा रहा. भभुआ वि विधानसभा सीट पर बसपा उम्मीदवार की जीत हुई थी लेकिन राज्य में नीतीश कुमार की सरकार बनने वाली थी.
आशुतोष कुमार तिवारी वाराणसी में सहायक लेखा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं
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