भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के पन्नों में शहीदे आजम भगत सिंह की पहचान एक युवा क्रांतिकारी नेता के रूप दर्ज है. आम तौर पर यह माना जाता है कि किसी क्रांति में समझौते की कोई जगह नहीं होती है. क्रांति का रास्ता बिना किसी समझौते के अपनी मंजिल तक जाता है. लेकिन क्रांतिकारी विचारों के होने के बावजूद भगत सिंह ऐसा नहीं मानते थे.
उन्होंने दो फरवरी, 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल से नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम एक पत्र लिखा था. इस पत्र को लाहौर के ‘पीपुल’ में 29 जुलाई 1931 को और इलाहाबाद के ‘अभ्युदय’ समाचार पत्र में आठ मई, 1931 को छापा गया था. लेकिन संपूर्ण रूप में इस पत्र को पहली बार जगमोहन सिंह और चमनलाल संपादित पुस्तक ‘भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’ में प्रकाशित (1987) किया गया.
इस पत्र में भगत सिंह लिखते हैं, ‘इस समय हमारा आंदोलन (सविनय अवज्ञा) अत्यंत महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है. एक साल के कड़े संघर्ष के बाद गोलमेज सम्मेलन (नंवबर, 1930 में आयोजित पहला गोलमेज सम्मेलन- लंदन) ने हमारे सामने, संवैधानिक सुधारों संबंधी कुछ निश्चित बातें पेश की हैं और कांग्रेसी नेताओं से कहा गया है कि मौजूदा परिस्थितियों में अपना आंदोलन वापिस लेकर इसमें मदद करें.’
वे आगे कहते हैं कि कांग्रेस नेता इस आंदोलन को समाप्त करने का फैसला करते हैं या नहीं करते हैं, इस बात का उनके लिए कोई मायने नहीं हैं. इसके अलावा भगत सिंह के मन में इस बात को लेकर कोई शंका नहीं थी कि इस आंदोलन का अंत किसी न किसी तरह के समझौते के रूप में होगा. आगे चलकर वे गलत साबित नहीं हुए.
इस पत्र को लिखे जाने के केवल एक महीने बाद ही मार्च, 1931 के आखिरी हफ्ते में आयोजित कांग्रेस के कराची अधिवेशन में गांधी-इर्विन समझौते पर मुहर लगा दी गई. कराची अधिवेधन से पहले पांच मार्च, 1931 को महात्मा गांधी और वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच एक समझौता हुआ था. इस समझौते में ब्रिटिश सरकार उन सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने के लिए तैयार हो गई थी, जिनके खिलाफ हिंसा का कोई मुकदमा दर्ज नहीं था. इन कैदियों में भगत सिंह का नाम शामिल नहीं था. वहीं गांधीजी सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित करने के लिए तैयार हो गए.
अपने पत्र में भगत सिंह आगे लिखते हैं, ‘वास्तव में समझौता कोई घटिया या घृणित वस्तु नहीं है, जैसा कि आम तौर पर समझा जाता है. राजनीतिक संघर्षों का यह एक जरूरी दाव-पेंच है. कोई भी राष्ट्र जो अत्याचारी शासकों के खिलाफ उठ खड़ा होता है, शुरू में जरूर विफल रहता है. संघर्ष के बीच में समझौते के जरिए कुछ आधे-अधूरे सुधार हासिल करता है और केवल आखिरी दौर में ही- जब सभी शक्तियां और साधन पूरी तरह संगठित हो जाते हैं- शासक वर्ग को नष्ट करने के लिए आखिरी जोरदार हमला किया जाता है.’
हालांकि, इन बातों के साथ उन्होंने साफ किया कि इन सबके बीच आंदोलन के उद्देश्य को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए. जिन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए संघर्ष किया जा रहा है, उनके बारे में पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए.
इसके आगे भगत सिंह नरम दल को निशाने पर भी लिया. वे आगे कहते हैं, ‘आप अपने शत्रु से सोलह आना पाने के लिए लड़ रहे थे. आपको एक आना मिलता है, उसे जेब में डालिए और बाकी के लिए संघर्ष जारी रखिए. नरम दल के लोगों में जिस चीज की कमी हम देखते हैं, वह उनके आदर्श की है. वे इकन्नी के लिए लड़ते हैं, इसलिए उन्हें कुछ नहीं मिल सकता.’ वहीं, शहीदे आजम युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं से इसे याद रखने को कहते हैं कि वे संपूर्ण क्रांति के लिए लड़ रहे हैं और उन्हें ताकत की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में लेनी है.
हालांकि, वे समझौतों से डर महसूस होने की भी बात करते हैं. इस बारे में वे लिखते हैं कि प्रतिक्रियावादी शक्तियां समझौते के बाद क्रांतिकारी शक्तियों को खत्म करवाने की कोशिशें करती हैं. लेकिन समझदार और बहादुर क्रांतिकारी नेता आंदोलन को ऐसे गड्ढ़ों में गिरने से बचा सकते हैं. हमें ऐसे समय और ऐसे मोड़ पर वास्तविक मुद्दों और खासकर उद्देश्यों को लेकर कुछ भी गड़बड़ नहीं होने देना चाहिए.’