प्रेमचंद ने यह लेख आत्मरक्षा में लिखा है. ‘भारत’ में ‘किन्हीं’ निर्मल महाशय ने प्रेमचंद को ब्राह्मणद्रोही तो बताया ही, हिंदू द्रोही भी सिद्ध किया है. कारण यह है कि –
‘हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखलाया है.’
प्रेमचंद पूछते हैं:
तो क्या आप चाहते हैं कि हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें, जिस तरह पुरोहित और पाखंडियों को करते हैं?
हमारी समझ में मुसलमानों से हिंदू जाति को उसकी शतांश हानि नहीं पहुंची है, जितनी इन पाखंडियों के हाथों पहुंची और पहुंच रही है. मुसलमान हिंदू को अपना शिकार नहीं समझता, उसकी जेब से धोखा देकर और अश्रद्धा का जादू फैलाकर कुछ ऐंठने की फिक्र नहीं करता.
प्रेमचंद इस लेख के अंत में कहते हैं:
राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण व्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है.
इस भेदभाव को हिमाकत बताते हुए प्रेमचंद एक दूसरी टिप्पणी में एक घटना का जिक्र करते हैं. एक सजातीय स्त्री कुएं में गिर पड़ी. सजातीय भीड़ में किसी में साहस न था कि कुएं में उतरे. जो हरिजन वहां आए, वे उतरकर उस महिला को निकालने के लिए तैयार हुए. लेकिन वे हरिजन थे. पानी अपवित्र हो जाता. नतीजा? अभागिन स्त्री कुएं में मर गईं.
जातिभेद सजातीयों के लिए आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता है. लेकिन वे हानि-लाभ देखकर इसे अब तक अपने लिए फायदेमंद मानते चले आए हैं. गांधी के उपवास और प्रेमचंद के लिखे हुए को 90 साल से अधिक गुजर चुके हैं.