सभी धर्मों के बीच प्रेम और सद्भाव की भावना की पैरवी करने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर जातिवादी होने के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं. बीते कुछ वर्षों के दौरान वे एक तबके के निशाने पर भी रहे हैं. लेखकों और बुद्धिजीवियों के इस समूह में प्रसिद्ध लेखिका अरूंधति रॉय और सुजाता गिडला भी शामिल हैं. आम तौर पर ये गांधीजी के शुरुआती जीवन और कुछ लेखों का हवाला देकर उन्हें जातिवादी और नस्लवादी बताती हैं. बुकर पुरस्कार सम्मानित लेखिका रॉय ने अपने एक कार्यक्रम में महात्मा गांधी के एक लेख ‘आदर्श भंगी’ का हवाला देते हुए कहा था, ‘इसमें वह मैला ढोने वालों को सलाह दे रहे हैं कि मल-मूत्र से खाद बनाएं। यह बताता है कि उन्होंने हरिजन व्यवस्था को बनाए रखने में मदद की।’
जैसा कि गांधीजी को पढ़ने और समझने वालों को मालूम है, उन्होंने अपने जीवन को भी एक प्रयोग की तरह देखा है. कई तरह के प्रयोगों की इस घड़ी में उनके जीवन की सुई जैसे-जैसे आगे बढ़ी, वैसे-वैसे वे अपने विचारों और धारणाओं में भी आवश्यकता के अनुरूप बदलाव लाते हुए दिखते हैं.
अपनी राजनीतिक जीवन की शुरुआती वर्षों में उन्होंने अपनी पत्रिका ‘नवजीवन’ में एक लेख लिखा था. साल 1921 में लिखे गए इस लेख में उन्होंने कहा था, ‘अगर हिंदू समाज अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है तो वह इसलिए क्योंकि, यह जाति व्यवस्था पर आधारित है.’ साथ ही, उन्होंने कार्य पर आधारित वर्णाश्रम-व्यवस्था से भी सहमति व्यक्त की थी. हालांकि, गांधीजी का यह भी मानना था कि जातियों के बीच कोई पदानुक्रम नहीं होना चाहिए और सभी जातियों को समान माना जाना चाहिए.
महात्मा गांधी ने 1921-27 के बीच दलित बच्चों के सार्वजनिक विद्यालयों में प्रवेश की मांग की. इसके अलावा उन्होंने डॉ. बीआर आंबेडकर के नेतृत्व वाले महाड़ सत्याग्रह (1927) का भी समर्थन किया था. वहीं, साल 1924-25 में गांधीजी ने वायकोम में एक मंदिर और ब्राह्मणों के निवास-स्थान से होकर गुजरने वाली सार्वजनिक सड़क के सार्वजनिक उपयोग से इन्कार के खिलाफ सत्याग्रह किया था. वे खुद वायकोम जाकर रूढ़िवादी ब्राह्मणों के साथ धर्मग्रंथों पर बहस की और आखिरकार सड़क को सभी के लिए खोल दिया गया. अगर हम महात्मा के रूप में गांधी के संपूर्ण जीवन को देखें तो ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं दिखती है. लेकिन उन्हें जातिवादी करार देने वाले इसका उल्लेख करते हुए नहीं दिखते हैं.
दिल्ली स्थित सेंट स्टीफेंस कॉलेज में दर्शनशास्त्र के शिक्षक केपी शंकरन एक लेख में कहते हैं, ‘मिथ्या सत्य के इस दौर में दलितों की ओर से बोलने का दावा करने वाले अरुंधती रॉय जैसे कुछ बुद्धिजीवी गांधी के जाति व्यवस्था के खिलाफ किए गए काम को खारिज करने की कोशिशें की जा रही हैं. ये समूह गांधी के शुरुआती लेखों को अपने एजेंडे के अनुरूप चुनिंदा रुप से उद्धरित करके उन्हें जाति व्यवस्था का समर्थक और पोषक बताने का प्रयास कर रहा है. इसके चलते दलित आंदोलनों में गांधी को आत्मसात नहीं किया जा रहा है.”
दलित चिंतकों के बीच 1932 में हुए ‘पूना पैक्ट’ के संबंध में गांधीजी को एक खलनायक के रूप में देखा जाता है. इस ऐतिहासिक समझौते को आधार बनाते हुए महात्मा गांधी को दलित विरोधी करार देकर घेरने की कोशिश की जाती है.
इस पर लेखक अशोक कुमार पाण्डेय अपनी किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ में लिखते हैं, ‘आखिर में जो समझौता हुआ उसमें पृथक निर्वाचन की व्यवस्था तो खत्म कर दी गई, लेकिन प्रांतीय विधानमंडलों में आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 और केंद्रीय विधानमंडल में 18 प्रतिशत कर दी गई. साथ ही दलित वर्ग को सार्वजनिक सेवाओं और स्थानीय संस्थाओं में उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर उचित प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई.’ इसके आगे वे कहते हैं कि यहां ध्यान देने वाली बात है कि गांधी ने दलितों को उनकी आबादी के अनुसार प्रतिनिधित्व की बात की थी और यह अवार्ड (कम्युनल अधिनिर्णय) में दी गई सीटों से अधिक संख्या थी.”
महात्मा गांधी के जीवन में छुआछूत का विरोध केंद्र में रहा है. इसकी वजह से उन्हें अपने हर कदम पर रुढ़िवादी और कट्टरपंथियों के विरोध का सामना करना पड़ा है. साल 1934 में पुणे में उनपर जानलेवा हमला भी किया गया था. वहीं, जब रुढ़िवादियों ने मनुस्मृति का हवाला देकर हमला करने की कोशिश की तो इसके जवाब में गांधीजी ने कहा, – ‘धर्म के नाम पर हिंदू धर्म अनेक पापों से भर गया है. ऐसी रूढ़िवादिता को मैं पाखंड कहता हूं. आपको खुद को इस पाखंड से मुक्त करना होगा, जिसका फल आप खुद भुगत रहे हैं.’
आखिर में यही कहा जा सकता है कि गांधीजी पर जातिवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग उनके शुरुआती सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं. इस अवधि के दौरान हम देखते हैं कि वे खुद अपने विचारों को आकार दे रहे होते हैं. वहीं, 1940 के दशक के बाद से गांधी न केवल अपने लेखों में जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात कर रहे थे, बल्कि इसके साथ जमीनी स्तर पर अभियान भी चला रहे थे. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इनकी जिंदगी के कुछ अधपके चावल के दाने को सामने करके पूरे चावल को ही अधपका बताने की कोशिश की जा रही है.