आम तौर पर वर्तमान को सही ढंग से लोगों तक पहुंचाने के लिए ऐतिहासिक चरित्र या घटनाओं का इस्तेमाल किया जाता रहा है. उदाहरण के लिए वैसे सरकारी आदेश या फैसले जो लोकतांत्रिक ढांचे से बाहर हो या जिससे बड़े पैमाने पर अफरा-तफरी मच जाए, उसे ‘तुगलकी’ फरमान के तौर पर देखा जाता है. माना जाता है कि इनके पीछे सबकी सहमति न होकर केवल शासक की जिद्द होती है. अधिकांश मामलों में इस तरह के फरमानों के नतीजे बुरे ही दिखते हैं. इस तरह के आदेश या फैसलों को 14वीं सदी में दिल्ली के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक से जोड़कर देखा जाता है.
तुगलक मध्यकालीन दिल्ली के सुलतानों में सबसे अधिक विद्वान लेकिन, सनकी शासक के तौर पर इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. मुहम्मद बिन तुगलक के दरबारी इतिहास जियाउद्दीन बरनी ने अपनी किताब ‘तारीख-ए फिरोजशाही’ में उनको ‘विपरीत तत्वों का मिश्रण और सृष्टि का आश्चर्य’ बताया है. वहीं, इतिहासकार एल्फिन्स्टन की मानें तो उनमें पागलपन का कुछ हिस्सा था. इतने विविधताओं से भरे इस शासक के बारे में हमारी जिज्ञासा को काफी हद तक शांत करने का काम इतिहास की किताबों के साथ मशहूर रंगकर्मी और लेखक गिरीश कर्नाड की 1964 में प्रकाशित किताब ‘तुगलक’ करती है.
आज भी इस किताब पर आधारित नाटक का मंचन रंगकर्मियों द्वारा किया जाता है. इसकी वजह वक्त गुजरने के बाद भी इसकी प्रासंगिकता का बचे रहना है. यह शासन और शासकों की उन गहरी परतों को हमारे सामने उघाड़ने का काम करता है, जो हमें सामान्य नजरों से नहीं दिखता है. ऐसा 1960 के दशक में भी हुआ था, जब इसे नेहरूकाल के समाजवाद से जोड़कर देखा गया. इसके बाद के दिनों में इसे इंदिरा गांधी के शासनकाल से भी इसका यही संबंध रहा.
वहीं, साल 2016 में नोटबंदी के एलान के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सहित अन्य कई विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘तुगलक’ बताया था. साथ ही, नोटबंदी जैसे फैसले को तुगलकी फरमान. इसके पीछे की वजह बिना पुख्ता तैयारी के नोटबंदी जैसे फैसले को लागू करना रहा था. इसकी वजह से न केवल जनता को तकलीफों का सामना करना पड़ा बल्कि, इसके मकसद को भी हासिल नहीं किया जा सका. इसकी पुष्टि खुद भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपनी रिपोर्ट में की है. इसकी पुष्टि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) की रिपोर्ट भी करती है. इसमें कहा गया कि अमान्य नोटों का 99.3 फीसदी हिस्सा वापिस बैंकिंग सिस्टम में आ गया है.
कुछ इसी तरह के फैसले आज से करीब 700 साल पहले मुहम्मद बिन तुगलक ने भी लिया था. साथ ही, वे इन फैसलों के पीछे एक ख्वाब भी परोसते थे. उन्होंने ऐसा अपनी राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाने और इसके बाद तांबे और चांदी के सिक्कों के मूल्यों को बराबर करने के फैसला लेते वक्त किया था. तुगलक कहते हैं, ‘हमेशा से मेरी ख्वाहिश रही है कि हमारी सल्तनत में सबके साथ एक जैसा सलूक हो. खुशियां हों. और हर शख्स को हक और इंसाफ हासिल हो. अपनी रियाया (प्रजा) के अमनो-अमान ही नहीं बल्कि, जिंदगी के हम ख्वाहिशमंद हैं….जिन्दा-दिली और खुशहाली से भरपूर जिंदगी.’ तुगलक आगे कहते हैं, ‘जिन्हें हमारे ख्वाबों की सदाकत पर जरा भी यकीन हो, वही आएं. महज उनकी मदद से हम एक ऐसी मिसाली हुकूमत कायम करेंगे, जिसे देखकर सारी दुनिया दंग रह जाए.’
हालांकि, जब तुगलक की ये योजनाएं बुरी तरह विफल रहीं तो सुल्तान का विश्वासपात्र इसकी जिम्मेदारी हाकिमों पर डाल देता है. इसकी वजह क्या हो सकती हैं. इसका जवाब सुलतान के एक द्वारपाल की बातों से मिलता है. वह एक मौके पर कहता है, ‘सुलतान गलती करे या न करे….अपनी बला से लेकिन, अपनी गलतियों का गली-गली ढिंढोरा पिटवाने के क्या माने? ऐसे में क्या कल रियाया शाही हुक्मों की कद्र भी करेगी? लगान देगी? जंग में जाएगी? ये तो वही मिसाल हुई कि खुद सुलतान ऐलान करे कि मेरी रियाया बागी हो जाए.’
दूसरी ओर, मुहम्मद बिन तुगलक जनता के सामने अपनी विफलता स्वीकार न की हो लेकिन, अपनी सौतेली मां से कहता है, ‘अब किया ही क्या जाए…अम्मीजान ! मैंने खुद ही एलान किया था कि तांबे की सिक्के की कीमत चांदी के सिक्के के ही बराबर है. अपने हुक्म की तामील मुझे तो करनी ही होगी. मैं लाचार हूं…जाली सिक्कों के मुतालिक मुझे तभी कियास (अनुमान) कर लेना चाहिए था जब मैंने तांबे के सिक्के जारी किए थे. मगर तब मैंने अंजाम नहीं सोचा जो मेरी भारी भूल थी. अब पूरे मुल्क की तिजारत (अर्थव्यवस्था) की हालत चौपट हो गई है.’
इससे पहले मुहम्मद बिन तुगलक बरनी से भी कहते हैं, ‘सारा मुल्क ही बदहाली की लपटों में सुलझा जा रहा है. तमाम कारगार काम धंधे चौपट हो गए हैं. सिर्फ एक धंधा आज तरक्की पर है, वह है जाली सिक्कों को जारी करना. गोया सल्तनत का हर घर जाली कारखाना हो.’ इसके आगे वे कहते हैं कि आखिर इन मुश्किलों से उन्हें कब निजात मिलेगी. साथ ही, वे अपनी जान पर खतरा होने की बात भी करते हैं. तुगलक कहते हैं, ‘अंदर ही अंदर एक ख्वाहिश उभरती है कि इस कशमकश को तोड़कर हज पर रवाना हो जाऊं. बरनी…हजारों खुंखार गिद्ध सर पर मंडरा रहे हैं…..जिनकी खूनी नजरें मुझ पर जमी हुई हैं. मैं अपनी बदनसीब रियाया को किसके भरोसे छोड़ दूं……मैं अपनी रियाया से जुदा नहीं हूं.’
उधर, जनता और खुद उनके सहयोगियों की राय सुलतान से उलट दिखती है. इनका कहना था कि जब से तुगलक गद्दी पर बैठे हैं, उस वक्त से करों में बढ़ोतरी की जा रही है. जमीन, मकान, खाना, पहनना सभी चीजों पर कर लगा दिया गया है. साथ ही, यह भी कहना था कि दिल्ली की बदनसीब अवाम सुलतान के रोज के नए-नए फैसलों से परेशान और जुल्म की वजह से तबाह हो गए हैं.
हम देखते हैं कि तुगलक की शासन की तरह अब तक नोटबंदी की विफलता और अर्थव्यवस्था पर इसके बुरे असर की जिम्मेदारी लेने से न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित उनके सहयोगी बचते दिखाई देते हैं. साथ ही, इसकी नाकामियों का बोझ सरकार बैंकरों पर डालकर उन्हें अनैतिक भी बता देती है. दूसरी ओर, मोदी सरकार के समर्थकों इस बात की दलील देते हैं कि उनकी नीयत सही थी लेकिन, इसके कार्यान्वयन के स्तर पर सहयोग नहीं मिल पाया. ठीक इसी तरह ‘तुगलक’ नाटक का एक पात्र रतन सिंह जो मुहम्मद बिन तुगलक का करीबी भी है, शहाबुद्दीन (सुलतान का एक अन्य करीबी) से कहता है, ‘सुलतान की नेकनीयती का मैं हमेशा कायल रहा हूं. उनकी नेकनीयती भी बड़ी बे मुरव्वत है, शहाबुद्दीन ….उनकी इसी नेकनीयती ने मुसलमानों की तरह हिंदुओं पर भी सितम ढाए हैं.’
तुगलक के शासन में दिल्ली की जनता के लिए सुलतान के फैसले ही मुश्किलों की वजह नहीं थे बल्कि, उन्हें इबादत (धर्म) और रोटी के बीच भी संघर्ष करना पड़ता था. आज की तरह उस वक्त भी धर्म और राजनीति एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. एक मौके पर खुद मुहम्मद बिन तुगलक शहाबुद्दीन से कहते हैं, ‘बड़ी-बड़ी उम्मीदें बांधी थीं कि तख्तनशीन होंगे तो मिसाली हुकूमत कायम करेंगे. चाहते थे हमारी सल्तनत में हर काम एक इबादत होगा, हर इबादत इल्म की एक सीढ़ी होगी और हर सीढ़ी खुदा को पाने का जरिया होगी…लेकिन यहां इबादत में भी सियासत की बूं आती है.’
वहीं, जनता का कहना था कि सुलतान ने इबादत करने का आदेश दिया है, लेकिन पहले रोटी तो मिले. वहीं, इबादत पर अधिक जोर देने की वजह से रियाया को कहना पड़ता है कि कि रोटी का नाम न ले कोई. इबादत करो….. बस उसी को खाओ…उसी को बिछाओ…उसी को ओढ़ लो. जो कुछ अनाज है…शाही महल के अंदर है. दूसरी ओर, आज देश में जो परिस्थितियां बनती हुई दिख रही है, उनमें भी बुनियादी मुद्दों पर हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद हावी होती हुई दिखती है. आज धर्म और गौरक्षा के नाम एक भीड़ तैयार कर एक समुदाय विशेष के लोगों को हमले किए जा रहे हैं तो उस वक्त भी लोगों की भीड़ पागल कुत्तों की तरह चीख रही थी.
इस नाटक के आखिर में जब मुहम्मद बिन तुगलक कहते हैं, ‘हमारे कट्टर दुश्मन वो हैं जो हमें और हमारे ख्यालों को समझने का दावा करते हैं.’ हालांकि, इस बात को जब वे महसूस करते हैं, इससे पहले वे अकेले पड़ जाते हैं. यहां तक की उनका विश्वासपात्र बरनी भी उन्हें छोड़कर चला जाता है.
इस नाटक के बारे में गिरीश कर्नाड ने कहा था कि जब वे इसे पन्नों पर उतार रहे थे, तो ऐसा महसूस हुआ कि मुहम्मद बिन तुगलक का किरदार उनके सामने ही बड़ा हो रहा है. आज की इस किताब को पढ़ने के दौरान हमारे सामने कुछ चरित्रों के चहेरे उभरते हैं और कुछ घटनाएं दिखती हैं. साथ ही, ऐसा महसूस होता है कि 14वीं सदी का यह ऐतिहासिक और कालजयी पात्र आज भी हमारे सामने है और हम सवा सौ करोड़ रियाया की भूमिका में उनके सामने हैं.