हजरतबल संकट के संदर्भ में भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही है. आडवाणी को यह पसंद नहीं है कि दरगाह के अंदर आतंकवादी बैठे रहें और सेना यह जानते हुए भी बाहर केवल घेरा डालकर प्रतीक्षा करे और उन पर गोली न चलाए. इससे भी ज्यादा जो बात उन्हें नागवार गुजरी वह यह है कि अंदर बैठे लोगों को मारने की बात तो दूर, उनके लिए बाहर से खाना और भिजवा दिया गया. महत्वपूर्ण यह नहीं है, क्योंकि आडवाणी जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले सिर्फ भाजपा में नहीं, करीब-करीब सभी राजनैतिक दलों और आम लोगों के बीच भी हैं.
महत्वपूर्ण आडवाणी का यह बयान है कि पिछले साल अयोध्या में कार सेवकों पर गोली चलाने की वकालत करने वाले तथाकथित छद्म धर्मनिरपेक्षता वादी लोग हजरतबल के मामले में आग्रह कर रहे हैं कि सुरक्षाबल हिंसक तरीके न अपनाए और उन्हें शांतिपूर्वक निकल जाने दें. आडवाणी ने अपनी ओर से धर्मनिरपेक्षतावादी और मानवाधिकारवादियों के दोमुंहेपन की आलोचना की है कि जब हिंदुओं पर गोली चलाने की बात आती है तो ये लोग उसका समर्थन करते हैं और जब मुसलमान और वह भी पृथकतावादी-उग्रवादी घेरे में आता है तो न सिर्फ उसे छोड़ने की बात करते हैं, बल्कि मानवाधिकार का प्रश्न भी उठता है. चलिए एक क्षण के लिए आडवाणी के इस तर्क को मान लेते हैं, परंतु क्या इससे यह पता चलता है कि आडवाणी आखिर कहना क्या चाहते हैं?
क्या ऐसी स्थिति में गोली चलानी चाहिए. अगर उनके कहने का मतलब यही है कि हां, तो वे फिर अयोध्या के कारसेवकों का मामला क्यों बीच में लाते हैं. क्योंकि वहां उनका तर्क था कि वह मूलत: श्रद्धालुओं की भीड़ थी, जो क्षणिक आवेश में कानून को अपने हाथों में ले रही थी. वैसी भीड़ पर गोली चलाने का भला क्या औचित्य हो सकता है. यानी आज के तर्क के आधार पर अगर देखें तो या तो कारसेवकों पर गोली चलाने की आवश्यकता थी या अगर तब यह गलत था तो हजरतबल में छिपे उग्रवादियों को निकालने के लिए गोली चलाने के तर्क का कैसे समर्थन किया जा सकता है.
अगर उनके ही तर्क को आगे बढ़ाया जाए तो यह कहा जा सकता है कि हजरतबल के साथ न केवल लाखों कश्मीरी मुसलमानों बल्कि आम मुसलमानों की भी भावनाएं हजरत मोहम्मद के पवित्र अवशेष के साथ कुछ इस प्रकार जुड़ी हुई है कि उस दरगाह पर चढ़ाई करने का वैसा ही प्रभाव पड़ेगा जैसे स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त पर हमले का सिखों पर हुआ था.
दरगाह में सिर्फ उग्रवादी ही नहीं, बच्चे, बूढ़े, औरतें, अक्षम-अपंग भी घिरे हुए हैं. क्या आडवाणी जी यह कहना चाहते हैं कि अंदर घिरे लोगों का राशन-पानी बंद कर दिया जाए और दरगाह पर हमला करके उग्रवादियों का सफाया कर दिया जाए. यह कैसी धर्मनिरपक्षेता है कि अयोध्या में उग्र श्रद्धालुओं के साथ हिंसा से न निपटा जाए. लेकिन कश्मीर के श्रद्धालुओं के साथ नरमी से बरतने का अर्थ है- कायरता और तुष्टिकरण. कुल मिलाकर आडवाणी जी का तर्क है कि अयोध्या में गोली न चले, पर कश्मीर में चले. फिर भी यह साफ नहीं होता है कि भाजपा की गोली चलाने न चलाने के बारे में नीति क्या है?
रामकोला में गन्ने का वाजिब दाम मांग रही किसानों की निहत्थी भीड़ पर कल्याण सिंह सरकार का गोली चलाने का निर्णय उचित था या अनुचित? छत्तीसगढ़ में अपने प्रिय नेता की हत्या के विरूद्ध आंदोलनकारी शांत भीड़ पर, जिसमें ज्यादातर औरतें और बच्चे थे, पटवा सरकार की गोलीबारी क्या उचित थी? इस विषय पर आडवाणी जी के विचार जानना जरूरी है. यह जानना जरूरी है कि इस चुनाव में उनके साथी वे अकाली भी हैं, जो इस बात से साल 1984 से ही रुष्ट हैं कि इंदिरा गांधी ने ऑपरेशन ब्लू स्टार क्यों किया. अयोध्या और हजरतबल के बारे में तो आडवाणी जी ने साफ कर दिया कि वे क्या करेंगे. स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त के बारे में भी उन्हें साफ कर देना चाहिए.