धरती को बचाने के लिए सरकार की नीयत का साफ होना अधिक जरूरी है

दुनियाभर के नेता एक बार फिर जलवायु परिवर्तन पर बात करने के लिए स्कॉटलैंड के ग्लास्गो में इकट्ठा हुए हैं

जलवायु परिवर्तन के विषय पर दुनियाभर के शीर्ष नेता स्कॉटलैंड के ग्लास्गो में इकट्ठे हुए हैं. इससे पहले भी इन देशों के प्रमुख या इनके प्रतिनिधि जलवायु परिवर्तन को थामने और इसके बुरे असर को कम करने की कोशिश के तहत 25 बार इकट्ठे हो चुके थे. ये 26 वीं बार है. इस जमावड़े को कॉप (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) नाम दिया जाता है. आगे कॉप- 27 भी होगा. उस वक्त शायद समस्या और भी गहरी हो जाएगी और मंच पर इन नेताओं के माथे की लकीरें भी.

संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के महासचिव एंटोनिओ गुटेरेस ने कॉप-26 में कहा है, ‘अब ये कहने का वक्त आ गया है कि बहुत हो चुका है. प्रकृति को शौचालय की तरह इस्तेमाल करना बहुत हुआ. खनिज के लिए धरती को गहरे से गहरे खोदकर हम अपनी ही कब्रें खोद रहे हैं.’

जलवायु परिवर्तन के लिए केवल धरती को खोदना ही एक वजह नहीं है. धरती को खोदे जाने से पहले धरती से जंगलों को साफ करना भी एक बड़ी वजह है. अगर हम अपने देश की ही बात करें तो यहां किसी परियोजना को शुरू करने से पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी लेना जरूरी है.

साल 2014 में जब मोदी सरकार आई तो तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने काफी तेजी से प्रस्तावित परियोजनाओं को मंजूरी दी. मोदी सरकार-1 के शुरुआती 21 महीने में ही 6.72 लाख करोड़ रुपये की 943 परियोजनाओं को मंजूरी दे दी. उस वक्त प्रकाश जावड़ेकर ने कहा था कि पिछली यूपीए सरकार में परियोजना को पर्यावरण मंत्रालय से क्लियरेंस मिलने में औसतन 600 दिन लगते थे, अब 190 दिन लगते हैं. उन्होंने आगे कहा था कि उनकी सरकार का लक्ष्य इसे घटाकर 100 दिन करना है. केंद्रीय मंत्री की इन बातों से साफ दिखा था कि सरकार की प्राथमिकता पर्यावरण से अधिक परियोजाओं को जमीन पर उतारना है.

इसके अलावा बड़ी परियोजाओं का पर्यावरण और स्थानीय लोगों पर पड़ने वाले असर के अध्ययन और आकलन से बचने के लिए इसे कई छोटे-छोटे हिस्सों में बांटने का खेल खेला जा रहा है. इसे समझने के लिए उत्तराखंड की ऑलवेदर रोड परियोजना को लिया जा सकता है. 825 किलोमीटर की इस परियोजना को पर्यावरण आकलन और अध्ययन से बचने के लिए 53 हिस्सों में बांट दिया गया. वहीं, इस परियोजना के लिए कुल कितने पेड़ों को काटा गया है, इसकी कोई आधिकारिक जानकारी सार्वजनिक नहीं है.

देश में जिस तरीके से विकास परियोजाओं को अंजाम दिया जा रहा है, उसके बुरे असर को हम सभी देख और इससे जूझ रहे हैं. हाल के महीनों में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बड़ी संख्या में भू-स्खलन हुआ है. इससे कई लोगों की मौत होने के साथ-साथ संपत्तियों को काफी नुकसान पहुंचा है. वहीं, हर साल बाढ़ से प्रभावित होने वाले बिहार और उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में तबाही का मात्रा बढ़ी है. और इसकी एक बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन और बारिश की प्रकृति में बदलाव है. अब अक्टूबर के तीसरे हफ्ते में भी देश के कई हिस्सों में लोगों को बाढ़ की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है.

मौजूदा परिस्थति में बड़ा सवाल है कि सरकार जलवायु परिवर्तन को रोकने और इससे प्रभावित होने वाले लोगों सरकार क्या कदम उठा रही है? इसके जवाब में सरकार कह सकती है कि वह ऊर्जा के नवीकरणीय संसाधनों जैसे कि सौर ऊर्जा को काफी बढ़ावा दे रही है. जब कोई आपदा आती है तो इससे प्रभावित लोगों को मुआवजा दिया जाता है. लेकिन क्या इतना काफी है?

रसोई गैस सिलेंडर की कीमत करीब 1000 रुपये पहुंचने से वे गरीब महिलाएं एक बार फिर वापस लकड़ी और अन्य वैकल्पिक ईंधन (फसलों के अवशेष) की ओर जाने को मजबूर होती हुई दिख रही हैं. इससे महिलाओं के साथ-साथ धरती के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ना तय है. लेकिन सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं है. वहीं, प्राकृतिक आपदा से प्रभावित लोगों के लिए कुछ हजार रूपये मुआवजा देकर अपनी जिम्मेदारी का इतिश्री कर लेती है. जबकि प्राकृतिक आपदाओं के चलते हुए नुकसान की भरपाई करने में प्रभावितों को अपनी पूरी जिंदगी खर्च करने पर मजबूर होना पड़ता है.

वहीं, कोरोना महमारी ने अप्रत्यक्ष तरीके पर्यावरण पर भी असर डाला है. यातायात के लिए पहले की तुलना में लोग निजी वाहन को वरीयता दे रहे हैं. वहीं, सरकार का ध्यान भी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को दुरूस्त करने में नहीं दिख रहा है. कोरोना के बाद देश में ट्रेनों का परिचालन भी कोरोना से पहले की तरह नहीं किया जा रहा है. भारतीय रेलवे अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए काफी कम संख्या में यात्री ट्रेनों को स्पेशल का तमगा देकर चला रही है. देश के गरीब लोगों के लिए अब ट्रेन से सफर भी करना भी मुश्किल हो रहा है. इससे बसों और अन्य गाड़ियों का इस्तेमाल बढ़ा है और हवा में कार्बन की मात्रा भी.

अगले कुछ दिनों तक ग्लास्गो में एक बार फिर बड़ी-बड़ी बातें होंगी. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक नया नारा दुनिया को थमाकर आएंगे. लेकिन पर्यावरण को प्रभावित करने वाले इन छोटी बातों की न तो चर्चा की जाएगी और न ही इनसे निपटने के लिए कोई कदम ही उठाया जाएगा. यही हमारी नियति है और शायद हमारी धरती की भी. शायद हमारी सरकारों की नीयत बड़ी-बड़ी बातों से ही हमारा पेट भरना और धरती को खाली करना ही है.

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