मीडिया और बैंडिट क्वीन फिल्म बताती है कि फूलन देवी (Phoolan Devi) प्रतिरोध में पागल हो गई थी. जिन लोगों ने 27 दिन तक लगातार उसके साथ बलात्कार किया था, उन्हें उसी जगह लाकर फूलन ने गोलियों से भून डाला था, जहां उसे नंगा घूमाया गया था. शायद 20 या 22 लोग थे. मीडिया से लेकर संसद तक हंगामा खड़ा हो गया- कानून और व्यवस्था के रखवाले जीपें और पुलिस बल लेकर दौड़ पड़े…हां मीडिया यह नहीं बताता कि उन्हीं ठाकुरों ने आस्था नाम की मल्लाह बस्ती के 26 लोगों को बदले में रेत डाला था.
उन्हीं की सेनाएं आज भी बिहार में पचास-पचास लोगों की सामूहिक हत्याएं कर रही हैं. उनकी ओर से प्रतिशोध में अगर 10 या पांच लोग भी मर जाएं तो ऊपर से लेकर नीचे तक व्यवस्था में हड़कंप मच जाता है, सारे अखबार और टीवी उन्हीं की लाशों या रोती हुई विधवाओं-मांओं के आसुंओं से गीले हो जाते हैं. लॉ एंड ऑर्डर की समस्या पर बहसें होती हैं. बुद्धिजीवी गंभीर होकर तर्क देते हैं कि प्रतिशोध का यह सिलसिला आखिर कब रूकेगा? हिंसा के बदले की गई हिंसा अंतत: हमें कहां ले जाएगी? नीची जातियों के ‘नक्सली’ जब थोक में मारे जाते हैं तो इन अभिजात बुद्धिजीवियों की आत्मा को हिंसा और प्रतिशोध की समस्याएं तंग नहीं करतीं…उन्हें वे बुद्ध और गांधी के आत्मबल की महत्ता बताते हैं….यानी उनकी निगाह में अन्याय का प्रतिरोध करना हिंसक होना है.
सांसद बनने के बाद जब फूलन देवी कहती हैं कि उसने पागलपन में हत्याएं कीं और उसे इसका अफसोस है तो ड्राइंग रूम में बैठे सम्भ्रांत दर्शक दांत किचकिचाते हैं कि जिसे फांसी के तख्ते पर होना चाहिए, वह संसद में क्यों है? जब उसे दिन-दहाड़े पांच गोलियों से भून डाला जाता है तो नैतिक संतोष से समर्थन करते हैं कि बुरे का अंत बुरा ही होता है, दूसरों को गोलियों से मारने वाला एक दिन खुद गोली का शिकार होता है…उसी संसद में बैठा और पचासों हत्याएं करने या कराने वाला आनंद मोहन या रणबीर सेना का बम-बम सिंह जब खुलेआम टीवी पर कहता है, ‘हां हमने उन्हें मारा है, आगे भी मारेंगे.’ तो इतना कहकर चुप हो जाते हैं कि ‘छि: ! उसे ऐसा तो नहीं बोलना चाहिए.’
वास्तव में फूलन की चंबल घाटियों से अशोक रोड और संसद तक की यात्रा व्यक्तिगत विजय की नहीं बल्कि, उस सामंती जाति संघर्ष का भी विमर्श भी है, जहां सत्ता की अनीतियों का शिकार आज उसी सत्ता में हिस्सा मांग रहा है. उधर, गोलियों-लाठियों से उन्हें सबक सिखलाने वाला दूसरा सामंती वर्ग घृणा और प्रतिशोध की सार्वजनिक घोषणा से लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा रहा है…बीसियों हत्याओं का हिस्ट्री शीटर हरिशंकर तिवारी उत्तर प्रदेश में मंत्री बन बैठा है, सैकड़ों लोगों का खून सिर ओढ़े बाल ठाकरे मिनिस्ट्रियां बना और बिगाड़ रहा है. सांप्रदायिक दंगे कराकर हजारों को मरवाने वाला आडवाणी देश का गृहमंत्री है, चंद्रशेखर जैसों को खुलेआम मरवाने वाले शहाबुद्दीन पर कोई माई का लालू हाथ नहीं डाल सकता….बार-बार मारा जाता है केवल फूलन को- घृणा, अपमान और हिकारत से… उसकी अपनी सजी-धजी खुश्बुएं उड़ाती सांसद बहनें नाक पर रूमाल और पल्लू रख लेती हैं…उन्हें उसके शरीर से वीर्य और खून की बदबू आती है, कितना बड़ा मजाक है, लोकतंत्र के नाम पर कि अनपढ़, बेवकूफ, गूंगी, कमीनी औरत हमारी बगल में बैठाई गई है- दिस इज लिमिट. 11 साल बिना आरोप सिद्ध किए अगर जेल में रह ली तो क्या सारे पाप धुल गए. अपने आपको स्त्री शक्ति की मुखर प्रवक्ता कहने वाली ये नेत्री-अभिनेत्रियां फूलन की बीहड़ों से संसद तक की यात्रा में कहीं कोई स्त्री विमर्श नहीं देखतीं. उनके मन में फूलन के लिए सहानूभूति नहीं, बल्कि घृणा है.
फूलन के लिए अपने भोगे हुए के पार जाकर सामाजिक अर्थ को समझ पाना उसके बस का नहीं था. हां, उसका जीवन स्वयं स्त्री संघर्ष का प्रतीक जरूर था. वह पुरुष से बदला लेने की प्रक्रिया में खुद पुरुष बन गई थी. जिन अत्याचारों से वह गुजर चुकी थी, ठीक वही अत्याचार अपनी शिकार स्त्रियों पर कराते हुए शायद उसे वही सुख मिलता था, जो किसी पुरुष को मिलता है. जानने वाले बताते हैं कि खुद किरण बेदी मर्दानी गालियों और अपराधी औरतों को सबक सिखाने में किसी भी पुरुष पुलिस अधिकारी से पीछे नहीं है. कहावत है कि पीड़ित को जब ताकत मिल जाती है तो वह संतुलन खो देता है.
लेकिन फूलन एक डरी हुई महिला थी. उसे सुरक्षा की तलाश थी. असुरक्षित व्यक्ति ही सबसे अधिक क्रूर भी होता है. फूलन ने कानून के खिलाफ जाकर खुद शक्ति अर्जित की थी, वह कभी भी छिन सकती थी, शायद इसलिए वह जल्दी में थी. अपने तीसरे जन्म में यानी संसद में आने पर फूलन धार्मिक हो रही थी. बाकायदा निष्ठापूर्वक पूजा पाठ करती थी.
फूलन का जीवन और उसकी मृत्यु ऐसे पाठ हैं, जिन्हें अनेक तरीके से पढ़ा जा सकता है. इनमें वह रणनीति भी शामिल है, जिसके तहत मुलायम सिंह की सीमित दृष्टि फूलन को राजनीति का मोहरा बना डालती है. लूट खसोट की उस संस्कृति के रूप में जहां कुल 36 रुपये से लेकर जेल से निकलने वाली औरत द्वारा छोड़ी गई छोड़ी गई 10 करोड़ की संपत्ति में हिस्सा बांट बन जाती है. समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, स्त्री-विमर्श, रोमांटिक विद्रोह की व्यक्तिगत परिणति, अभिजन और सर्वहारा राजनीति के वर्ग संघर्ष, तीन जन्मों के अंतर्विरोध, लोकतंत्र की विडम्बना, व्यावहारिक राजनीति और सत्ता के लिए उसका कुत्साकरण-हर कोण से फूलन एक सवाल की तरह सामने है…उसे केंद्र में रखकर सारे भारतीय समाज का विश्लेषण या चित्रण किया जा सकता है.
हंस पत्रिका (सितंबर, 2001) में राजेंद्र यादव की संपादकीय ‘हत्या एक आकार की’ का एक अंश