हुंकार रैली मामला : जब पहला ब्लास्ट सुबह ही हो चुका था तो भाजपा ने दोपहर बाद की सभा रद्द क्यों नहीं की

27 अक्टूबर, 2013 की सुबह पटना जंक्शन पर ब्लास्ट की खबर मिलने के बाद नरेंद्र मोदी की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे गुजरात पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने अरुण जेटली से कहा था कि हुंकार रैली को रद्द करना पड़ेगा

साल 2013 के गांधी मैदान सीरियल ब्लास्ट (serial blasts) मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) की विशेष अदालत ने बुधवार को अपना फैसला सुनाया है. एनआईए ने इस मामले में 10 आरोपितों में से नौ को दोषी पाया है, वहीं एक को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया है. जांच एजेंसी एक नवंबर, 2021 को दोषियों को सजा सुनाएगी.

16वीं लोकसभा चुनाव से पहले 27 अक्टूबर, 2013 को गांधी मैदान (Gandhi Maidan) में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की ‘हुंकार रैली’ (Hunkar Rally) में जनसभा के दौरान हुए बम ब्लास्ट में छह लोगों की मौत हो गई थी. वहीं, 90 से अधिक लोग घायल हुए थे. इस मामले में नौ इंडियन मुजाहिद्दीन (IM) और स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) के एक संदिग्ध को आरोपित बनाया गया था. वहीं, अक्टूबर, 2017 में एक नाबालिक आरोपित को तीन साल की सजा सुनाई गई थी.

बताया जाता है कि जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) जनसभा को संबोधित कर रहे थे, उस दौरान गांधी मैदान में सिलसिलेवार विस्फोट (Serial blasts) हुए, लेकिन कोई भगदड़ नहीं हुई. बिहार की जनता की इस धैर्य की तारीफ खुद नरेंद्र मोदी ने की थी.

पत्रकार राजदीप सरदेसाई अपनी किताब ‘2014 : द इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया’ (2014 : The election that changed India) में इस सीरियल बम ब्लास्ट का जिक्र किया है. इसमें उन्होंने बताया है कि जब पटना जंक्शन में बम ब्लास्ट की खबर (सुबह साढ़े नौ बजे) आई तो उस वक्त नरेंद्र मोदी पटना हवाई अड्डे पर पहुंच चुके थे. और इसे एक आतंकी हमले के होने से इनकार नहीं किया जा सकता था.

मोदी से पहले तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और अरुण जेटली पटना पहुंच चुके थे. रैली की तैयारियां पूरी हो चुकी थी. राज्य के कोन-कोने से बस और ट्रेनों में लोगों को पटना लाया गया था. बाद में जेटली ने राजदीप सरदेसाई को बताया कि वे इस खबर को सुनने के बाद गुजरात पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी से बात की, जो मोदी की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे थे. उस अधिकारी ने अरुण जेटली को बताया, ‘हमलोगों ने मोदी जी को एयरपोर्ट पर ही रूकने को कहा है और सभा स्थल पर आने से मना किया है. हमें इस रैली को रद्द करना पड़ेगा.’

हालांकि, भाजपा नेतृत्व सुरक्षा चिंताओं की परवाह न करते हुए दोपहर बाद की सभा को जारी रखने का फैसला किया. अरुण जेटली ने बताया था, ‘अगर हम रैली को रद्द करते तो एक पैनिक क्रिएट होता और लोग भगदड़ में मर सकते थे.’ गांधी मैदान में दो लाख लोगों की भीड़ जमा होने वाली थी, इतनी भारी संख्या में लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करना किसी भी राज्य की पुलिस के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकती थी. कर्मियों की कमी और पर्याप्त संसाधन वगैरह से जूझने को मजबूर बिहार पुलिस के लिए यह भारी संकट की स्थिति थी. ऐसी स्थिति में गांधी मैदान में जनसभा को जारी रखना हजारों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ हो सकता है, इसके बावजूद इसे जारी रखा जाता है. और छह लोगों की जान चली जाती है, 90 से अधिक घायल हो जाते हैं.

लेकिन अब यहां सवाल पैदा होता है कि घटना के दिन पहला बम विस्फोट सुबह साढ़े नौ बजे होने के बाद भी जनसभा को रद्द क्यों नहीं किया गया था? इस सवाल का जवाब हासिल करने के लिए हमें समय की सुई को गुजरात दंगों तक ले जाना होगा.

साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद केंद्र की गठबंधन सरकार (एनडीए) में हलचल हुई थी. केंद्र में मंत्री और लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. लेकिन तत्कालीन रेल मंत्री नीतीश कुमार ने ऐसा कुछ नहीं किया. लेकिन नवंबर, 2005 में बिहार में सरकार बनाने के बाद नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी से दूरी बनानी शुरू कर दी. इसकी एक बड़ी वजह मुस्लिम वोटों को अपनी ओर खींचना था.

अगर हम नीतीश कुमार के शासनकाल को देखें तो उन्होंने राज्य में मुसलमानों के लिए कब्रगाहों की घेराबंदी सहित कई सारी योजनाएं चलाई थीं. इसका फायदा उन्हें चुनावों में मिला भी. इस तरह मुसलमानों के करीब आने के दौरान वे नरेंद्र मोदी से दूर होते गए. यहां तक की हुंकार रैली (2013) से पहले एनडीए सरकार के दौरान राज्य में विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में नरेंद्र मोदी को नहीं बुलाया गया. इसका जिक्र मोदी ने हुंकार रैली के भाषण में किया था.

अक्टूबर, 2013 में भाजपा का चेहरा बन चुके नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘दो बार चुनाव हुए…पार्टी के सामने सवाल था कि गुजरात से नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार में लाया जाए या न लाया जाए? मीडिया में भी यह विषय उछाल दिया गया था. हमारे नेताओं का मुझ पर इतना प्यार था, वो मुझे बुलाने के लिए आतुर थे. हर दबाव के बीच भी वो मुझे बिहार लाने के लिए आग्रह कर रहे थे. कभी सुशील जी का फोन… तो कभी नंद किशोर जी का फोन.’

उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में आगे कहा, ‘…और उधर से गठबंधन पर खतरे की खबरें दी जाती थीं. और तब जाकर के….भारतीय जनता पार्टी का संस्कार देखिए….मैंने सुशील जी को कहा था…नंदकिशोर जी को कहा था कि मोदी को बुलाने का आग्रह मत कीजिए. हमारा मकसद है… बिहार में किसी भी तरह जंगल राज घुसना नहीं चाहिए. मोदी अपमानित होता है तो होने दो.’

साल 2005 में मुख्यमंत्री बनने के करीब साढ़े तीन साल बाद 2009 में नीतीश कुमार को किसी जनसभा में पहली बार नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करते हुए दिखते हैं. यह जनसभा 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए के नेताओं की एकजुटता और ताकत दिखाने के लिए आयोजित की गई थी.

राजदीप अपनी किताब में बताते हैं कि इस जनसभा में नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से बचने के लिए नीतीश कुमार इसमें जाने से झिझकते हैं. लेकिन उनके करीबी भाजपा नेता अरुण जेटली उन्हें लालकृष्ण आडवाणी की ओर से व्यक्तिगत न्यौता का हवाला देकर इसके लिए तैयार किया था. फिर आगे की घटना कुछ इस तरह की है कि जनसभा के लिए नीतीश मंच पर चढ़ते हैं और फिर मोदी उनका हाथ पकड़कर भीड़ की ओर मुखातिब होते हैं. मोदी-नीतीश की यह तस्वीर न्यूज चैनलों और अगले दिन अखबारों के फ्रंटपेज पर छा जाती है. राजदीप कहते हैं कि इस घटना के बाद नीतीश कुमार ने जेटली से शिकायती लहजे में कहा था, ‘आपने अपने शब्दों का मान नहीं रखा.’

इस सियासी खेल में एक साल बाद नीतीश कुमार की बारी आई थी. जून, 2010 में पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी. इस बैठक में नरेंद्र मोदी को भी शामिल हो रहे थे. वहीं, नीतीश कुमार की ओर से भाजपा के नेताओं के लिए रात्रि भोज का भी न्यौता दिया गया था.

पत्रकार संकर्षण ठाकुर नीतीश कुमार की जीवनी ‘सिंगल मैन : द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ नीतीश कुमार ऑफ बिहार’ में बताते हैं कि इस डिनर के लिए सुशील कुमार ने मुख्यमंत्री को चाणक्य होटल का सुझाव दिया था. लेकिन नीतीश कुमार ने इस सुझाव को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि होटल में अपनापन वाली बात नहीं होगी. बताया जाता है कि रात्रिभोज के लिए 1 अणे मार्ग (मुख्यमंत्री आवास) के लॉन में शामियाना लगाया गया था और तरह-तरह के पकवान की तैयारियां थीं.

वहीं, इससे पहले भाजपा की ओर दूसरी ही तरह की खिचड़ी पक रही थी. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की तैयारियां की जा चुकी थीं. पूरे पटना को पोस्टरों और हॉर्डिगों से पाट दिया गया था. इन पोस्टरों में कुसहा त्रासदी (कोसी बाढ़-2008) के पीड़ितों की राहत के लिए गुजरात सरकार की ओर से पांच करोड़ रुपये देने का भी जिक्र था.

संकर्षण ठाकुर आगे लिखते हैं कि जब भाजपा की कार्यकारिणी बैठक शुरू हुई थी तो नीतीश कुमार विकास यात्रा पर थे. इस यात्रा से वापस पटना आने के बाद अगली सुबह उनकी नजर दो दैनिक अखबारों में प्रकाशित एक विज्ञापन पर पड़ी. यह विज्ञापन पूरे एक पन्ने का था और इस पर कोसी बाढ़ पीड़ितों के लिए पांच करोड़ रुपये का ‘महादान’ लिखा था. इस विज्ञापन में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की लुधियाना जनसभा वाली तस्वीर का भी इस्तेमाल किया गया था. इससे नाराज नीतीश कुमार ने अप्रत्याशित फैसला लेते हुए रात्रिभोज को रद्द कर दिया.

वहीं, मोदी भी नीतीश के इस कदम पर गुस्से में थे. बताते हैं कि उन्होंने तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से कहा था, ‘आप लोग नीतीश को मेरे साथ इस तरह का व्यवहार करने ही क्यों दिया? हमें सरकार से अलग हो जाना चाहिए.’ संकर्षण ठाकुर की मानें तो इसी दिन से नीतीश और मोदी के बीच की लड़ाई एक व्यक्तिगत लड़ाई में बदल चुकी थी. हालांकि, 2009 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा नेतृत्व बिहार जैसे राज्य को नहीं खोना चाहती थी. इसे देखते हुए मामला को ठंडा करने की कोशिश की गई.

लेकिन नरेंद्र मोदी इस घटना को को भूले नहीं थे और इसकी याद तीन साल बाद उन्होंने बिहार के लोगों को भी दिलाई. उन्होंने गांधी मैदान में कहा, ‘भाइयो.. बहनो.. ये 2006-07 की घटना है, आपके मुख्यमंत्री, हमारे मित्र गुजरात आए थे. शादी में आए थे, हम भी इस शादी में शरीक हुए थे. हम एक टेबल पर खाना खा रहे थे. शाम का समय था. ये हमारे मित्र, हमारे मेहमान थे. हमने उन्हें इतना जमकर खिलाया…इतना जमकर खिलाया..उनका पेट भी भर गया…उनका मन भी भर गया.’ वे आगे कहते हैं, ‘ मेहमाननवाजी करना ये मेरे देश की संस्कृति है, ये मेरे देश की परंपरा है. हमने भली भांति उसको निभाया था. भाइयो… बहनो… सार्वजनिक जीवन के चरित्र होते हैं. सार्वजनिक जीवन के वसूल होते हैं.’

पटना में नरेंद्र मोदी जब बिहार की जनता को यह बता रहे थे, उस वक्त नीतीश कुमार एनडीए से अलग होकर राज्य में अकेले अपनी सरकार चला रहे थे. और इसकी वजह नरेंद्र मोदी का लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा का चेहरा बनना था.

मोदी ‘हुंकार रैली’ नीतीश कुमार का नाम लिए बिना उन पर निशाना साधते हुए कहते हैं, ‘यहां पर यहां पर हमारे मित्र मुख्यमंत्री हैं….(मुस्कुराते हैं)…लोग पूछते थे कि आपके मित्र मुख्यमंत्री ने क्यों छोड़ दिया…मैंने कहा था…जो जेपी (जयप्रकाश नारायण) को छोड़ देता है…वह बीजेपी को क्यों नही छोड़ देगा.’ वे यहीं पर नहीं रूकते हैं. मोदी कहते हैं, ‘उनका इरादा नेक नहीं था. ये हमारे मित्र को चेले-चपालों ने कह दिया…कांग्रेस के साथ जुड़ जाओ, प्रधानमंत्री बनने का अवसर है. … (वे) ख्वाब देखने लगे.’

नरेंद्र मोदी ने सीरियल बम ब्लास्ट के बावजूद अपने इस 54 मिनट के भाषण का करीब आधा हिस्सा नीतीश कुमार पर खर्च किया था. और ऐसा नहीं था कि उन्होंने नीतीश कुमार की सरकार के कामकाज को निशाने पर लिया था. नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत रूप से कई हमलाे किए.

यहां पर संकर्षण ठाकुर की बातें सही जान पड़ती है कि 2010 के बाद नीतीश और मोदी के बीच की लड़ाई सियासी से अधिक व्यक्तिगत हो चुकी थी. और मोदी के पूरे भाषण को सुनने से यह साफ होता है कि वे अपने ‘मन की बात’ गांधी मैदान में लाखों बिहारी लोगों के बीच से ही नीतीश कुमार को सुनाना चाहते थे. और इसके लिए हुंकार रैली से बड़ा और कोई मंच नहीं हो सकता था.

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