देश की राजनीति में यह मान्यता अब स्थापित हो चुकी है कि भारत को दो लोगों की सरकार चला रही है. ये दो लोग कौन हैं, इसका जिक्र कोई नहीं करता है. लेकिन जानते सभी है, इसलिए शायद किसी को नाम बताने की भी जरूरत भी महसूस नहीं होती है. भारतीय राजनीति में एक वक्त था, जब दिल्ली की सत्ता उत्तर प्रदेश से तय होती थी. अब इसकी जगह गुजरात ने ले ली है और इस काम को नरेंद्र मोदी के साथ अमित शाह की जोड़ी ने अंजाम दिया है.
साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी बदलते भारत का चेहरा बन चुके हैं. हालांकि, भारतीय राजनीति के दो ध्रुवों के इस पर अलग-अलग विचार हो सकते हैं कि ये चेहरा लोकतंत्र के लिए अच्छा या बुरा. लेकिन दूसरी ओर, इस बात पर सभी करीब-करीब एकमत दिखते हैं कि अमित शाह ने देश में चुनाव लड़ने के ढांचे को ही पूरी तरह बदल दिया है, जिसे अब कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल भी अपनाते हुए दिख रही हैं.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले देश में चुनाव को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के एक हिस्से के रूप में देखा जाता था. लेकिन पिछले आठ वर्षों में यह प्रक्रिया से अधिक इवेंट का रूप ले चुका है. इस इवेंट में कई चीजों को शामिल किया गया है और इसने देश में गांव से लेकर दिल्ली तक चुनावी लड़ने के तरीके ही बदल डाला है. अब इन तरीकों को नैतिक-अनैतिक नहीं जीत और हार के चश्मे से देखा जा रहा है.
इस बदलाव की अगुवाई अमित शाह (प्रशांत किशोर के योगदान को भी कमतर न आंका जाए) ने की है. भाजपा के अध्यक्ष पद पर रहते हुए उन्होंने चुनावी संघर्ष को कैसे बदला है, इसे हम एक-एक करके देखते हैं.
अस्त्र-शस्त्र : सोशल मीडिया
भाजपा ने साल 2014 लोक सभा चुनाव के पहले से ही लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया का अस्त्र-शस्त्र की तरह लगातार इस्तेमाल करना शुरु कर दिया था. माना जाता है कि चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने इसकी शुरुआत की थी. लेकिन अमित शाह सही-गलत, नैतिक-अनैतिक की परवाह किए बिना इसे काफी आगे बढ़ाया. लोगों के एक-दूसरे से जुड़ने का डिजिटल प्लेटफॉर्म अब भाजपा की एजेंडा को सीधे लोगों तक पहुंचाने का सबसे बड़ा हथियार बन चुका था.
आज की तारीख में यह इतना प्रचलित हो चुका है कि आम लोग व्हाट्सएप पर आने वाले राजनीतिक संदेशों को भी खबर की तरह सच मानने लगे हैं और इस पर प्रतिक्रिया जाहिर करने लगे हैं. यहां तक कि लोगों के बीच जाति और धर्म के नाम पर आपसी टकराव की वजह भी व्हाट्सएप संदेश और सोशल मीडिया पोस्ट बन रही है. फिर इस टकराव का कनेक्शन चुनावी राजनीति से हो जाता है.
फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे प्लेटफॉर्म के ‘पूर्ण इस्तेमाल’ को पूर्व भाजपा अध्यक्ष अच्छी तरह करना जानते हैं. इसका दावा वे खुद करते हैं. सितंबर, 2018 में राजस्थान में अपने एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा था, ‘हम किसी भी संदेश को वायरल करने की क्षमता रखते हैं, चाहे वह गलत हो या सही’. अमित शाह ने यह बयान अखिलेश यादव से संबंधित एक वीडियो को लेकर दिया था. इस वीडियो में भाजपा के एक कार्यकर्ता ने यह अफवाह फैला दी कि मुलायम सिंह यादव को अखिलेश यादव ने थप्पड़ मारा है. अब इसके बाद मतदाताओं के बीच अखिलेश यादव की एक नकारात्मक छवि बन गई, जिससे भाजपा को फायदा हुआ.
इसके अलावा सोशल मीडिया के जरिए भाजपा अपने प्रतिद्वंद्वियों की छवि खराब करने की योजना पर भी लगातार काम करती आ रही है. इसका सबसे अधिक शिकार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी बनते रहे हैं. विपक्षी दल के नेताओं की छवि खराब करने के लिए उनके किसी बयान को कांट छांट कर लोगों के सामने परोस दिया जाता है. नाम न छापने पर उत्तर प्रदेश के एक युवा ने इलेक्शनामा को बताया, ‘राज्य में बड़े पैमाने पर इस तरह के वीडियो बनाने के लिए लड़कों पर काम रखा जा रहा है. काम पर रखने से पहले इनका एक टेस्ट लिया जाता है, जिसमें एक विषय देकर इनसे कहा जाता है कि इस नेता का मजाक वाला वीडियो बनाना है. ऐसा मुझे भी करने के लिए कहा गया था.’
विपक्ष के साथ-साथ ‘बैठक, भोजन और विश्राम – भाजपा के यह तीन काम’ की परंपरा को तोड़ा
दिल्ली में पार्टी की कमान अपने हाथों में लेने के बाद अमित शाह ने ‘बैठक, भोजन और विश्राम-भाजपा के यह तीन काम’ की परंपरा को तोड़ने का काम किया. सार्वजनिक रूप से उनकी कार्यशैली इस रूप में सामने आई है कि वे खुद तो जमीन और कार्यकर्ताओं के बीच काम करते ही है. साथ ही, पार्टी के अन्य लोगों को भी आगे करते हैं. उनका जमीन से जुड़ने का ही नतीजा है कि बूथ की बात भी दिल्ली मुख्यालय तक पहुंच जाती है.
वहीं, चुनाव लड़ने की उनकी शैली की बात की जाए तो इसके लिए एक फिल्मी डॉयलाग – ‘प्यार और जंग में सबकुछ जायज होता है’ का सहारा लिया जा सकता है. अमित शाह ने प्यार और जंग की सूची में चुनाव को भी जोड़ दिया है. भारतीय राजनीति में जोड़-तोड़ की राजनीति नई बात नहीं है. इसे रोकने के लिए 1985 में दल-बदल कानून भी बनाया गया. इस के बावजूद अमित शाह ने दूसरे पार्टियों के नेताओं को न केवल भाजपा में शामिल करवाया, बल्कि कई राज्यों में सरकार बनाने में भी सफल रहे. 2017 के चुनाव के बाद उत्तराखंड में भले ही भाजपा की सरकार बनी हो, लेकिन सरकार में अधिकांश चेहरे कांग्रेस के थे. भाजपा संगठन इसके लिए किसी राज्य में चुनाव से पहले ही काम शुरू कर देता है.
इसका सबसे सटीक उदाहरण पश्चिम बंगाल है. इस राज्य में भाजपा साल 2014 से ही सक्रिय है. पार्टी नेतृत्व ने सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस सहित अन्य दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल करवाया. खुद फ्रंटफुट पर आकर अमित शाह ने ‘मिशन बंगाल’ का नेतृत्व किया है. 2021 के विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद यह भाजपा की सफलता है कि सात साल पहले दो सांसदों वाली भाजपा आज बंगाल विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी है. वहीं, यह उनकी नीति का नतीजा था कि बंगाल में एक बार फिर जीत दर्ज करने वाली तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी नंदीग्राम की लड़ाई हार गईं और एक बार फिर उन्हें भवानीपुर से चुनाव लड़ना पड़ा.
भाजपा को मतदाता सूची के हरेक पन्ने तक पहुंचाया
पार्टी अध्यक्ष के रूप में अमित शाह न केवल खुद पोलिंग बूथ लेवल के कार्यकर्ताओं तक पहुंचे बल्कि, भाजपा को भी बूथ की मतदाता सूची के हर एक पन्ने तक पहुंचा दिया. इसके लिए उन्होंने एक खास रणनीति तैयार की. उन्होंने मतदाता सूची के एक पन्ने के लिए एक प्रमुख की नियुक्ति की और इसे ‘पन्ना प्रमुख’ नाम दिया.
इस रणनीति को समझने के लिए मान लीजिए कि मतदाता सूची के एक पन्ने पर 30 मतदाताओं के नाम और अन्य जानकारियां हैं. अब पन्ना प्रमुख का यह काम होता है कि जिस पन्ने की जिम्मेदारी उसे दी गई है, उसमें दर्ज वोटरों से वह भाजपा की ओर से संपर्क करें. साथ ही, मतदान के दिन इसके हर वोटर को पोलिंग बूथ तक पहुंचाने का काम भी करता है. अब 2022 के गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए खुद गृहमंत्री अमित शाह को नारायणपुरा विधानसभा के बूथ नंबर 38 में पेज सात का प्रमुख बनाया गया है. पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और मौजूदा गृहमंत्री को पन्ना प्रमुख बनाया जाने को भाजपा की मजबूत चुनावी कार्यशैली के एक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है, जिसकी नींव खुद अमित शाह ने रखी थी.